पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/६९

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विद्यापति ।। ६३।

माधव । १२१ भौंह लता बड़ देखि कठौर, अञ्जने ऑजि हासि गुन जोर ॥ २ ॥ सायक तोर कटाख अति चोख, व्याध मदन चधइ बड़ दोष ॥ ४ ॥ सुन्दरि सुनह वचन मन लाए, भदन हाथ मोहि लेह छडाए ॥ ६ ॥ सहए के पार काम परहार, कत अभिभव हो की परकार ॥ ८ ॥ एहि जग तिनिहु विमलजस लेह, कुच युग शम्भु शरन मोहि देह ॥१०॥ राधा । १३३ | तोरए मोञ गेलहु फूल । मोती मानिके तूल ॥ २ ॥ साजन साज अछोरसि मोरि । गरुवि गरुवि आरति तोरि । | दिठि देखइते दिवस चोरि ॥ ५ ॥ एत कन्हाई पर धन लोभ । जे नहि लुबध सेहे पए सोभ ॥ ७ ॥ निकुञ्जकर समाज । इथी नही मुख लाज ॥ ६ ॥ ढाकि रहे न अपजस रासि । से करए कान्ह जेन लजासि । जखने नागर नगर जासि ॥१२॥ पीन पयोधर भार । मदन राए भंडार ॥ १४ ॥ रतने जड़िलो ताहेर माथे । मलिन हो तन देहे हाथ ॥ १६ ॥ भन कबि कण्ठहार । बस एतए के पार ॥ १८ ॥ | सिरि सिवसिंह जानै तन्त । रतन सने लखीमा कन्त । सकल कला रस जे गुनमन्त ॥२॥ = |