पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/७८

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विद्यापति ।

दूतो । १३६ हमें दुरसइते कतहुँ वेश करु हमे हेरइते तनु झॉप । सुरत शिङ्गारे आजु धनि ओलि परशइत थर थर कॉप ॥ २ ॥ शुन हे कान्हु काहय अवधारि । सकल काज हम बुझल बुझायले न बूझल अन्तर नारि ॥ ४ ॥ अभिनव काम नाम पुन शुनइते रोखत गुन दुरसाइ । अरि सम गञ्जए मन पुन रञ्जए अपन मनोरथ साई ॥ ६ ॥ अन्तरे जिउ अधिक करि मनिए बाहर न गनए तरासे। कह कविशेखर सहज विषय रत विदगध केलविलासे ।। ८ ॥ दूती । १४० जावे न मालति कर परगास । तावे न ताहि मधुकर विलास ॥ ३ लोभ परीहार सुनहि रॉक । धके कि के कुछ डूब विपाक ॥ ४ ॥ तेज मधुकर एहन अनुबन्ध । कोमल कमल लीन मकरन्द ॥ ६ ॥ एखने इछसि एहन सङ्ग। ओ अति सैसवे न बुझ रङ्ग ॥" कर मधुकर तोहे दिढ़ गेऑन । अपने आरति न मिल आन ॥१०॥