पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/८३

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विद्यापति । दूती । १४६ अधिक नवोढा सहजहि भीति । आइलि मोर वचने परतीति ॥२॥ चरण न चलए निकट पहु पास । रहलि धरनि धरि मान तरास ॥४॥ अवनत आनन लोचन वारि । निज तनु मिलि रहलि चर नारि ।।६।। सखी से सखी कथा । | १५० कते अनुनये अनुगत अनुबोधि । पतिगृह सखिन्हि साउलि बोधि ॥ २ ॥ बिमुखि सुतलि धनि सुमुखि न होए । भागल दल बहुलावए कोए ॥ ४ ॥ चालभु बेसनि विलासिनि छोटि । मेलि न मिलए देलहु हिम कोटि ॥ ८ ॥ बसन झपाए बदन धर गौए । चादर तर सास वेकत न होए ॥ ८ ॥ भुज जुग चाप जीव जो सॉच । कुच कञ्चन कोरी फल कॉच ॥१०॥ लग नहि सरए करए कसि कोर । करें कर बॉहि करहि कर जोर ॥१२॥ एत दिन सइसके लाल साठ । अव गए मदने पढ़ाओब पाठ ॥१४॥ गुरुजन परिजन दुअओ नेवार । मोहरे मुदल अछ मदन भेंडार ॥१६॥ भनइ विद्यापति एहो रस भान । राएसिवसिंह लखिमा देवि रमान ॥१८॥ (४) बहुलायए=फिराता है।