पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/८६

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विद्यापतिं । सखी । १५५ अधर मगइते अञोध कर माय । सहए न पार पयोधर हाथ ॥ २ ॥ विघटुल नबी करे धर जॉति । अंकुरल मदन धरए कृत भॉति ॥ ४ ॥ कोमल कामिनि नागर नाह। कञोने पर होएत केलि निरचाह ॥६॥ कुच कोरक तवे कर गहि लेल । कोच बदर अरुण रुचि भेल ॥ ८॥ लावए चाहिअ नखर विशेख | भाँडन आवए चान्दुक रख ॥१०॥ तसु मुख सो लोभे रहू हेर । चान्द झपाव बसने कल वेरि ॥१६॥ सखी । १५६ परशइते चमक चलय पद आध । अनुमति न दए न करे रस वाव अभिनव नागर सुनागर मेलि । रस वैदग्धि अवधि भई गेलि ।। हठ परिरम्भ आरम्भन चेलि । धनि मुख मोड़ि रहल कर ठात ॥ आने कहइते अन कहे तङ्के। मरम कहइते विहसि वङ्क ॥६॥ रति रन रङ्गहि भङ्ग न देल । नजानि काम केहन यश लेल ।।१०