पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/८८

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| ८२ विद्यापति । सखी । १५६ एके अवलो शोके सहजक छोटि । कर धरइते करुणा कर कोटि ॥२॥ ऑकम नाम रहए हिअ हारि । जनि करिवरतर खसलि पञोनारि॥४॥ नअन नीर भरि नहि नहि बोल | हरि डरे हरिण जइसे जिवडील ॥६॥ कौशल कुच कोरक करे लेल । मुख देखि तिरिवध संसअ भेल ॥६ वारि विलासिनि बेसनी कान्हें । मदन कउतुकि हटल नमान॥ भनई विद्यापति सुनह मुरारि । अति रति हठे नहि जीवए नारि ॥ सखी । पहिलहि राधा माधव भेट । चकितहि चाहि वयन कर हट ॥ अनुनय काकु करतहि कान्ह । नवीनरमनि धनिरसनहि जान ॥ हरि हरि नागर पुलक भेल । कॉपि उठि तनु सेद बहि गल आथिर माधव धरु राहिक हाथ । करे कर बाधि धर धनि माथ ।।" भनइ विद्यापति नहि मन आन । राजा सिवसिंह लखिमा रमान॥१०॥