पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१०२

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विनय-पत्रिका
 

परम पावन; पाप-पुंज-मुंजाटवी-अनल इव निमिष निर्मूलकर्ता। भुवन-भूपण,दूषणारि.भुवनेश,भूनाथ, श्रुतिमाथजय भुवनभर्ती॥ अमल, अविचल, अकल, सकल, संतप्त-कलि-विकलता- भंजनानंदासी। उरगनायक-शयन तरुणपंकज-नयन,छीरसागर-अयन,सर्ववासी॥ सिद्ध-कवि-कोविदानंद-दायक पदद्वंद्व मंदात्ममनुजैर्दुरापं । यत्र संभूत अतिपूत जल सुरसरी दर्शनादेव अपहरति पापं ॥८॥ नित्य निर्मुक्त, संयुकगुण, निर्गुणानंद, भगवंत, न्यामक,नियंता। विश्व-पोपण-भरण, विश्व-कारण-करण, शरण तुलसीदास त्रास- हंता ॥९॥ भावार्थ-हे श्रीरामजी! आप संतोंके सन्ताप हरनेवाले, महा- प्रलयके समय सारे विश्वको अपनेमें विश्राम देनेवाले तथा शिवजीको आनन्द देनेवाले हैं । आप शुद्ध-बोध-धाम, सच्चिदानन्दधन, मज्जनों- के आनन्दको बढ़ानेवाले और खर दैत्यके शत्रु है॥१॥ हे श्रीराम- जी! आप गील और समताके स्थान, भेद-बुद्धिरूप विषमताके नाशक, लक्ष्मीरमण और रावणके शत्रु हैं। वाण, धनुष और शक्ति धारण किये हैं, आप हाथमें तलवार और सुन्दर ढाल लिये हुए हैं, शरीरपर कवच धारण किये है और सुन्दर कमरमें तरकस कसे है ॥२॥ आप सत्यसंकल्प, कल्याणके दाता, सबके हितकारी, सर्व दिव्यगुण और ज्ञान, विज्ञानसे पूर्ण हैं । आपका राम-नाम ( अज्ञान- रूपी) अत्यन्त घन अन्धकारसे पूर्ण घोर ससाररूपी रात्रिका नाश करनेके लिये प्रचण्ड किरणयुक्त सूर्यके समान है ॥ ३॥ आपका तेज बड़ा ही तीक्ष्ण है, संसारके नये-नये तीन तापोंका आप नाश करने-