पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/११८

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१२१ विनय-पत्रिका फदेमें फंसकर दुखी हो रहा है। हे नाथ ! दासकेकष्टको दूरकर इसकी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥८॥ मुझ दीन तुलसीदासके पास धर्मरूपी मार्ग-व्यय (कलेवा) भी नहीं है, मैं थककर बडा दुखी हो रहा हूँ, मोहने मेरी बुद्धिका भी नाश कर दिया है। अतएव हे चक्रधारी ! आप तेज, बल और सुखकी राशि है, मुझे बिना विलम्ब अपने कर-कमलका सहारा दीजिये ॥९॥ [६१] सकल सुखकंद, आनंदवन-पुण्यकृत, विंदुमाधवद्वंद्व-विपतिहारी। यस्यांघ्रिपाथोज अज-शंभु-सनकादि-शुक-शेष-मुनिवृंद-अलि- निलयकारी ॥१॥ अमल मरकत श्याम, काम शतकोटि छवि, पीतपट तड़ित इव जलदनीलं। अरुण शतपत्र लोचन, विलोकनि चारु, प्रणतजन-सुखद, करुणा- ईशीलं ॥२॥ काल-गजराज-मृगराज, दनुजेश-वन-दहन पावक, मोह- निशि-दिनेशं। चारिभुजचक्र कौमोदकी-जलज-दर, सरसिजोपरि यथाराजहंसं॥ मुकुट, कुंडल, तिलक, अलक अलिवात इव, भृकुटि, द्विज, __ अधरवर, चारुनासा। रुचिर सुकपोल, दर ग्रीव सुखसीक, हरि, इंदुकर-कुंदमिव मधुरहासा ॥४॥ उरसिवनमालसुविशालनवमंजरी, भ्राज श्रीवत्स-लांछन उदारं॥ परम ब्रह्मन्य, अतिधन्य, गतमन्यु, अज, अमितवल, विपुल महिमा अपारं ॥ ५॥