पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१३

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- - विनय-पत्रिका सूर्य-स्तुति [२] दीन-दयालु दिवाकर देवा । कर मुनि, मनुज,सुरासुर सेवा ॥१॥ हिम-तम-करि-केहरिकरमाली। दहन दोप-दुख-दुरित-रुजाली॥२॥ कोक-कोकनद लोक-प्रकासी । तेज प्रताप-रूप-रस-रासी ॥३॥ सारथि-पंगु, दिव्यरथ-गामी हरि-संकर-विधि-मूरति खामी॥४॥ वेद-पुरान प्रगट जस जागै। तुलसी राम-भगति वर माँगे॥५॥ भावार्थ-हे दीनदयालु भगवान् सूर्य ! मुनि, मनुष्य, देवता और राक्षस-सभी आपकी सेवा करते हैं ॥१॥ आप पाले और अन्धकाररूपी हाथियोंको मारनेवाले वनराज सिंह हैं; किरणोंकी माला पहने रहते हैं, दोष, दुःख, दुराचार और रोगोंको भस्म कर डालते हैं॥२॥ रातके बिछुडे हुए चकवा-चकवियोंको मिलाकर प्रसन्न करने- वाले, कमलको खिलानेवाले तथा समस्त लोकोंको प्रकाशित करनेवाले हैं। तेज, प्रताप, रूप और रसकी आप खानि हैं ।। ३ ॥आप दिव्य स्थपर चलते हैं, आपका सारथी (अरुण) लला है। हे खामी!आप विष्णु, शिव और ब्रह्माके ही रूप हैं॥४॥वेद-पुराणोंमें आपकी कीर्ति जगमगा रही है। तुलसीदास आपसे श्रीराम-भक्तिका वर मांगता है ॥५॥ शिव-स्तुति [३] को जॉचिये संभु तजि आन । दीनदयालु भगत आरति-हर, सव प्रकार समरथभगवान ॥१॥ कालकूट-जुर जरतसुरासुर, निज पन लागि किये विष-पान। दारुन दनुज, जगत-दुखदायक, मारेउ त्रिपुर एक हीवान ॥२॥