पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विनय-पत्रिका भावार्थ-हे जीव ! जबतक त् जीभसे राम-नाम नहीं जपेगा तबतक तू कहीं भी जा,-तीनों तापोंसे जलता ही रहेगा ॥१॥ गङ्गाजीके तीरपर जानेपर भी तू पानी विना तरसकर दुखी होगा, कल्पवृक्षके नीचे भी तुझे दरिद्रता सताती रहेगी ॥ २॥ जागते सोते और सपनेमें तुझे कहीं भी सुख नहीं मिलेगा। इस ससारमें जन्म- जन्म और युग-युगमे तुझे रोना ही पड़ेगा॥ ३ ॥ जितने ही छूटनेके (दूसरे ) उपाय करेगा ( राम-नामविमुख होनेके कारण) उतना ही और कसकर बॅधता जायगा; अमृतमय भोजन भी तेरे लिये विपके समान हो जायगा |॥ ४॥ हे तुलसी ! तुझसे दीनको तीनों लोकों और तीनों कालोंमें एक श्रीराम नामका वैसे ही भरोसा है जैसे मछलीको जलका ॥ ५॥ सुमिरु सनेहसो तू नाम रामरायको। संवल निसंवलको, सखा असहायको॥ १॥ भाग है अभागेहूको गुन गुनहीनको।। गाहक गरीवको, दयालु दानि दीनको ॥ २॥ कुल अकुलीनको, सुन्यो है वेद साखि है। पॉगुरेको हाथ-पॉय, आँधरेको आँखि है ॥ ३॥ माय-चाप भूखेको, अधार निराधारको। सेतु भवसागरको, हेतु सुखसारको ॥ ४ ॥ पतितपावन राम-नाम सो न दूसरो। सुमिरि सुभूमि भयो तुलसी सो ऊसरो ॥ ५ ॥ भावार्थ-हे जीव ! तू प्रेमपूर्वक राजराजेश्वर श्रीरामके नामका स्मरण कर, उनका नाम पाथेयहीन पथिकोंके लिये मार्गन्यय