पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१३४

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विनय-पत्रिका राम-नाम काम-तरु जोइ जोइ माँगिहै। तुलसिदास स्वारथ परमारथ न खाँगिहै ॥ ५॥ भावार्थ-हे मन ! यदि मेरे कहेपर चलकर, खभावसे ही श्रीराम-नामसे प्रेम करेगा तो तेरा सब प्रकारसे भला होगा ॥१॥ रामनामका प्रभाव कँपा देनेवाली सर्दीका नाश करनेके लिये अग्निके समान है, मनुष्यकी बुद्धिको विचलित कर देनेवाला कलिकाल अपने (काम-क्रोधादि) सहायकोसमेत रामनामके डरसेतुरंत भाग जायगा ॥२॥ राम-नामके प्रभावसे वैराग्य, योग, जप, तप आदि आप ही जाग्रत् हो उठेगे; फिर वाम विधाता भी तेरे मस्तकपर बुरे कर्म-फल अङ्कित नहीं कर सकेगा, अर्थात् तेरे सारे कर्म क्षीण हो जायँगे ॥ ३ ॥ यदि तू राम-नामरूपी लड्डूको प्रेमरूपी अमृतमें पागकर खायगा तो तुझे सदाके लिये परम सन्तोप प्राप्त हो जायगा, फिर सुखके लिये घर-घर भटकना नहीं पड़ेगा ॥ ४ ॥ राम-नाम कल्पवृक्ष है, इससे हे तुलसीदास ! तू उससे खार्थ-परमार्थ जो कुछ भी माँगेगा, सो सभी मिल जायगा, किसी बातकी कमी नहीं रहेगी ॥५॥ [ १] ऐसेहू साहवकी सेवा सो होत चोरु रे। ___ आपनी न बूझ, न कहै को राँडरोरु रे ॥१॥ मुनि-मन-अगम, सुगम माइ-वापु सो। कृपासिंधु, सहज सखा, सनेही आपु सों ॥२॥ लोक-बेद-विदित वड़ो न रघुनाथ सों। सब दिन सव देश, सबहिके साथ सो॥३॥