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विनय-पत्रिका
वह जिसपर प्रसन्न होते हैं, उसके वशमे हो जाते हैं और जिसपर
नाराज होते हैं उसे ( देहके बन्धनसे छुड़ाकर ) अपने परम धाममें
भेज देते हैं । उनका नाम कल्पवृक्षके समान है, जिसमें सब प्रकार-
के फल फलते हैं ॥ ६॥ जिसके बेचनेपर एक खोटा पैसा नहीं
मिलता और रखनेसे कुछ काम नहीं निकलता, ऐसे तुलसीदासको
भी जिन्होंने निहाल कर दिया, ऐसे राजाधिराज श्रीरामजीका क्या
कहना है ॥ ७॥
[७२ ]
मेरो भलो कियो राम आपनी भलाई ।
हों तो साई-द्रोही पै सेवक-हित साई ॥१॥
रामसों बड़ो है कौन, मोसों कौन छोटो।
रामसोखरो है कौन,मोसों कौन खोटो॥२॥
लोक कहै रामको गुलाम ही कहावौं ।
एतो बड़ो अपराध भौ न मन वावौं ॥ ३॥
पाथ माथे चढ़े तृन तुलसी ज्यों नीचो।
बोरत न वारि ताहि जानि आपुसींचो ॥ ४॥
भावार्थ-श्रीरामजीने अपने भलेपनसे ही मेरा भला कर दिया।
( मेरे कर्तव्यसे भला होनेकी क्या आशा थी १ ) क्योंकि मैं तो
खामीके साथ बुराई करनेवाला हूँ परन्तु मेरे खामी श्रीराम सेवक-
के हितकारी हैं॥१॥ श्रीरामजीसे तो बड़ा कौन है और मुझसे छोटा
कौन है ? उनके समान खरा कोन है और मेरे समान खोटा कौन
है-१ ॥२॥ संसार कहता है कि मैं ( तुलसीदास ) रामजीका
गुलाम हूँ और मैं भी यह कहलवाता हूँ। ( वास्तवमें रामका सेवक
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१३६
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