पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१४०

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- - १५३ विनय-पत्रिका दूसरो भरोसो नाहिं वासना उपासनाकी, वासव, बिरंचि सुर-नर-मुनिगनकी। खारथके साथी मेरे, हाथी खान लेवा देई, काहू तो न पीर रघुवीर ! दीन जनकी ॥२॥ साँप-सभा सावर लवार भये, देव दिव्य, दुसह साँसति कीजै आगे ही या तनकी। साँचे परौं, पाऊँपान, पंचमें पन प्रमान, तुलसी चातक आस राम स्यामघनकी ॥ ३ ॥ भावार्थ-बुरा-भला जो कुछ भी हूँ सो आपका हूँ। आपकी सौंह, मैं आपसे झूठ क्यों कहूंगा? आप तो सभीके मनकी बात जानते हैं । मैं कपटसे नहीं, परन्तु कर्म, वचन और हृदयसे कहता हूँ कि 'मैं आपका हूँ।' यह आपकी गुलामीका हठ इतना पक्का है जैसे पानीसे भीगे हुए सनकी गाँठ ! ॥१॥ हे रामजी! न तो मुझे दूसरेका भरोसा है और न मुझे इन्द्र, ब्रह्मा अथवा अन्य देवता, मनुष्य और मुनियोंकी उपासना करनेकी ही इच्छा है । आपके सिवा सभी स्वार्थके साथी हैं, जन्मभर हाथीकी तरह सेवा करनेपर कहीं कुत्ते-जैसा तुच्छ फल देते हैं । इनमेंसे किसीको भी दीनोंके दुःखमें ऐसी सहानुभूति नहीं है जैसी आपको है ।। २॥ हे दिव्यदेव ! मैं आपका गुलाम हूँ', यह बात यदि मैं झूठ कहता हूँ तो मेरे इस शरीरको अपने ही आगे ऐसा असह्य कष्ट दीजिये जैसा साँपोंकी सभा ( सॉपको वश करनेका मन्त्र नहीं जाननेवाले) झूठे सपेरेको मिलता है अर्थात् उस पाखण्डीको साँप काट खाते हैं । और यदि मैं सच्चा ( रामका गुलाम ) सिद्ध