पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१४१

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विनय-पत्रिका हो जाऊँ तो हे नाथ ! मुझे पों के बीचमें सचाईका एक बीड़ा मिल जाय । क्योंकि मुझ तुलसीलपी चातकको एक रामरूपी श्याम मेकी ही आशा है ॥ ३॥ [७६] रामको गुलाम, नाम रामवोला राख्यौ राम, काम यहै, नाम द्वै हो कबहूँ कहत हो। रोटी-लूगा नीके राखै, आगेहूकी चेद भाखै, भलो द्वैहै तेरो, ताते आनंद लहत हौ ॥१॥ चाँध्यौ हो करम जड़ गरव गूढ़ निगड़, सुनत दुसह हौ तौ साँसति सहत हो। आरत-अनाथ-नाथ, कौसलपाल कृपाल, लीन्हों छीन दीन देख्यो दुरित दहत हौं ॥२॥ चूझ्यो त्यो ही, कह्यो, मैं हूँ चेरो द्वैहौरावरोजू ____ मेरो कोऊ कहूँ नाहिं चरन गहत हौं। मीजो गुरु पीठ, अपनाइ गहि वाह वोलि सेवक-सुखद, सदा विरद वहत हौं ॥३॥ लोग कहे पोच, सो न सोच न सँकोच मेरे ___ व्याह न वरेखी, जाति-पाति न चहत हौं। तुलसी अकाज-काज राम ही के रीझे-खीझे, प्रीतिकी प्रनीति मन मुदित रहत हौं ॥४॥ मावार्थ में श्रीरामजीका गुलाम हूँ। लोग मुझे रामबोला' कहने लगे हैं। काम यही करता हूँ कि कभी-कभी दो-चार बार राम नाम कह लेता हूँ। इसीसे राम मुझे रोटी-कपडोंसे अच्छी