विनय-पत्रिका जोग कोटि करि जो गति हरिसों, मुनि माँगत सकुचाहीं। वेद-विदित तेहि पद पुरारि पुर, कीट पतंग समाहीं ॥३॥ ईस उदार उमापति परिहरि, अनत जे जाचन जाही। तुलसिदास ते मूढ़ माँगने, कबहुँ न पेट अघाहीं ॥४॥ भावार्थ-शंकरके समान दानी कहीं नहीं है। वे दीनदयाल हैं, देना ही उनके मन भाता है, माँगनेवाले उन्हें सदा सुहाते हैं ॥१॥ वीरोंमें अग्रणी कामदेवको भस्म करके फिर बिना ही शरीर जगत्में उसे रहने दिया, ऐसे प्रभुका प्रसन्न होकर कृपा करना मुझसे क्योंकर कहा जा सकता है ? ॥२॥ करोडों प्रकारसे योगकी साधना करके मुनिगण जिस परम गतिको भगवान् हरिसे मांगते हुए सकुचाते हैं वही परम गति त्रिपुरारि शिवजीकी पुरी काशीमें कीट- पतंग भी पा जाते हैं, यह वेदोंसे प्रकट है ॥ ३॥ ऐसे परम उदार भगवान् पार्वतीपनिको छोडकर जो लोग दूसरी जगह माँगने जाते हैं, उन मूर्ख मांगनेवालोंका पेट भलीभाँति कभी नहीं भरता ॥ ४ ॥ वावरोरावरो नाह भवानी।। दानि यदो दिन देत दये यिनु, वेद-बड़ाई भानी॥१॥ निज घरकी घरवात बिलोकहु, हो तुम परम सयानी। सिवकी दई संपदा देखत, श्री-सारदा सिहानी ॥२॥ जिनके भाल लिपी लिपि मेरी, सुखकी नहीं निसानी। तिन रंकनकी नाक सँवारत, हो आयो नकवानी ॥३॥ दुग-दीनता दुगी इनके दुय, जाचकता अकुलानी। यह अधिकार सीपिये औरहि, भीख भली में जानी ॥४॥ अगदीनता दुक सँचारत, लकी नहीं निसाना ॥ २ ॥