विनय-पत्रिका
सुना या प्रसन्न मनसे कहा ॥ ४ ॥ अब जब कि बुढ़ापेने आकर
सारे अझोंको व्याकुल कर तोड दिया है, तब मणिहीन साँपके समान
चिन्ता करता हूँ, सिर धुन-धुनकर और हाय मल-मलकर पछताता
हूँ, पर इस समय इस दुःसह दावानलको बुझानेके लिये कोई
भी हितकारी मित्र दृष्टि नहीं पडता ॥ ५॥ जिनके लिये
( अनेक पाप कमाकर ) लोक-परलोक बिगाड दिया था।
वे आज पास खडे होनेमें भी शर्माते है। हे तुलसी ! तू अब भी
उन श्रीरघुनाथजीका स्मरण कर, जिनका एक बार नाम लेनेसे
ही गजराज ( संसारसागरसे ) तर गया था ॥ ६॥
[८४]
तो तू पछितैहै मन मीजि हाथ ।
भयो है सुगम तोको अमर-अगम तन, समुझिघों कत खोवत
अकाथ ॥१॥
सुख-साधन हरि विमुख वृथा जैसे श्रम फल घृतहित मथे पाथ।
यह विचारितजिकुपथ-कुसंगनिचलि सुपंथ मिलिभले साथ ॥२॥
देखु राम-सेवक-सुनि कीरति, रटहि नाम करि गान गाथ ।
हृदय आनु धनुवान-पानि प्रभु,लसे मुनिपट, कटि कसे भाय ॥३॥
तुलसिदास परिहरि प्रपंच सब, नाउ रामपद-कमल माथ ।
जनि डरपहि तोसे अनेक खल, अपनाये जानकीनाथ ॥४॥
भावार्थ-हे मन ! तुझे हाथ मल-मलकर पछताना पड़ेगा। अरे!
जो मनुष्य-शरीर देवताओंको दुर्लभ है, वही तुझको सहजमे मिल
गया है, तू तनिक विचार तो कर, उसे व्यर्थ क्यों खो रहा है ?
॥१॥ हरिसे विमुख होनेपर सुखका साधन वैसे ही व्यर्थ है जैसे
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१५१
Jump to navigation
Jump to search
यह पृष्ठ शोधित नही है
