पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विनय-पत्रिका घी निकालनेके लिये पानीके मथनेका परिश्रम । (सुख हरिमें है, उसको भूलकर सुखरहित विषयोंकी सेवासे सुख कभी नहीं मिल सकता) यह विचारकर बुरा मार्ग और बुरोंकी संगति छोड़ दे तथा सन्मार्गपर चलता हुआ सज्जनोंका संग कर ॥ २॥ श्रीरामभक्तोंके दर्शन कर, उनसे हरिकथा सुन, रामनामको रट और रामकी गुण-गाथाओंका गान कर और हायमें धनुष-बाण लिये, मुनियोंके वस्त्र पहने एवं कमरमें तरकस कसे हुए प्रभु श्रीरामजीका हृदयमें ध्यान कर ॥३॥ हे तुलसीदास ! संसारके सारे प्रपञ्चोंको छोड़कर श्रीरामजीके चरणकमलोंमे मस्तक नवा । डर मत, तेरे जैसे अनेक नीचोंको श्रीजानकीनाथ रामजीने अपना लिया है ॥ ४ ॥ राग धनाश्री [८५] मन ! माधवको नेकु निहारहि । सुनु सठ, सदा रंकके धन ज्यों, छिन-छिन प्रभुहि सँभारहि ॥१॥ सोभा-सील-ग्यान-गुन-मंदिर, सुंदर परम उदारहि । रंजन संत, अखिल अघ-गंजन, भंजन विषय-विकारहि ॥२॥ जो विनु जोग-जग्य-व्रत-संयम गयो चहै भव-पारहि । तौ जनि तुलसिदास निसि-वासर हरि-पद-कमल विसारहि ॥३॥ भावार्थ-हे मन ! माधवकी ओर तनिक तो देख ! अरे दुष्ट ! सुन, जैसे कगाल क्षण-क्षणमें अपना धन सँभालता है, वैसे ही तू अपने खामी श्रीरामजीका स्मरण किया कर ॥ १॥ वे श्रीराम शोभा, शील, ज्ञान और सद्गुणोंके स्थान हैं। वे सुन्दर और बड़े