पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१५३

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विनय-पत्रिका १५६ दानी हैं। सतोंको प्रसन्न करनेवाले, समस्त पापोंके नाश करनेवाले और विषयोंके विकारको मिटानेवाले हैं॥२॥ यदि त बिना ही योग, यज्ञ, व्रत और सयमके संसार-सागरसे पार जाना चाहता है तो हे तुलसीदास ! रात-दिनमें श्रीहरिके चरण-कमलोंको कभी मत भूल॥३॥ [८६] इहै कहयो सुत ! वेद चहूँ। श्रीरघुवीर-चरन-चितन तजि नाहिन ठऔर कहूँ॥१॥ जाके चरन विरंचि सेइ सिधि पाई संकरहें। सुक-सनकादि मुकुत विचरत तेउ भजन करत अजहूँ ॥२॥ जद्यपि परम चपल श्री संतत, थिर न रहति कतहूँ। हरि-पद-पंकज पाइ अचल भइ, करम-वचन-मनहूँ ॥ ३॥ करुनासिंधु, भगत-चिंतामनि, सोभा सेवतहूँ। और सकल सुर, असुर-ईस सब खाये उरग छहूँ ॥४॥ सुरुचि कहयो सोइ सत्य तात अति परुप वचन जवहूँ। तुलसिदाल रघुनाथ-विमुख नहिं मिटइ विपति कबहूँ ॥ ५॥ भावार्थ-भक्त ध्रुवजीकी माता सुनीतिने पुत्रसे कहा था-हे पुत्र | चारों वेदोंने यही कहा है कि श्रीरघुनाथजीके चरणों के चिन्तनको छोडकर जीवको और कहीं भी ठिकाना नहीं है ॥ १॥ जिनके चरणोंका चिन्तन करके ब्रह्मा और शिवजीने भी सिद्धियाँ प्राप्त की हैं, ( जिनकी सेवासे ) आज शुक-सनकादि जीवन्मुक्त हुए विचर रहे और अब भी जिनका स्मरण कर रहे हैं ॥ २॥ यद्यपि लक्ष्मीजी बडी ही चञ्चला हैं, कहीं भी निरन्तर स्थिर नहीं रहती, परन्तु वे भी भगवान्के चरण-कमलोंको पाकर मन, वचन,