पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१६१

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विनय-पत्रिका १६६ ऐसा कहते है। तो क्या मैं नीच, भयभीत या दीन नहीं हूँ! अथवा क्या वेदोंकी यह घोषणा ही झूठी है ? ॥२॥ (पहले तो) मुझे आपने पक्षी (जटायु गृध्र), गणिका (जीक्ती), हायी और व्याध (वाल्मीकि ) की पक्तिम बैठा लिया । यानी पापी खीकार कर लिया। अब हे कृपानिधान ! आप किसकी गर्म करके मेरी परसी हुई पत्तल काड रहे हैं॥ ३ ॥ यदि कलिकाल आपसे अधिक बलवान् होता और आपकी आज्ञा न मानता होता तो है हरे ! हम आपका भरोसा और गुणगान छोडकर तया उसपर क्रोध करने और दोष लगानेका झंशट त्याग कर उसीका भजन करते ॥ ४ ॥ परन्तु आप तो मामूली मच्छरको ब्रह्मा और ब्रह्माको मच्छरके समान बना सकते हैं, ऐसा आपका प्रताप है। यह सामर्थ्य होते हुए भी आप मुझे त्याग रहे है, तब हे नाथ ! मेरा फिर वश ही क्या है ? ॥५॥ यद्यपि मै सब प्रकारसे हार चुका हूँ और मुझे नरकमें गिरनेका भय नहीं है, परन्तु मुझ तुलसीदासको यही सबसे बडा दुःख है कि प्रमुके नामने भी मेरे पापोंको भस्म नहीं किया ॥ ६ ॥ [९५] तऊ न मेरे अघ-अवगुन गनिहें । जो जमराज काज सब परिहरि, इहै ख्याल उर अनिहै ॥ १॥ चहि कुटि पुंज पापिनके, असमंजस जिय जनिहें । देखि खलल अधिकार प्रभूसों (मेरी) भूरि भलाई भनिहें ॥ २ ॥ हँसि करिहैं परतीति भगतकी भगत-सिरोमनि मनिहें। ज्यो त्यों तुलसिदास कोसलपति अपनायेहि पर बनिहें ॥ ३ ॥