पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१६४

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विनय-पत्रिका और वालिसे हठ करके क्यों शत्रुता मोल लेते ॥ १॥ यदि आप जप, यज्ञ, योग, व्रत आदि छोडकर केवल प्रेम ही न चाहते तो देवता और श्रेष्ठ मुनियोंको त्यागकर व्रजमें गोपोंके घर किसलिये निवास करते ॥ २॥यदि आप जहाँ-तहाँ भक्तोंका प्रण रखकर भजनका प्रभाव न बखानते, तो हम-सरीखे मूल्का कलियुगके कठिन कर्म-मार्गमें किस प्रकार निर्वाह होता ॥ ३॥ हे संकटहारी ! यदि आपने पुत्रके संकेतसे नारायणका नाम लेनेवाले अजामिलके अनन्त पापोंको भस्म न किया होता तो यमदूत हम-सरीखे बैलोंको खोज-खोजकर हलमें ही जोतते ॥ ४ ॥ और यदि आपने जगप्रसिद्ध पतितपावन रूपका बाना नहीं धारण किया होता तो तुलसी-सरीखे दुष्ट तो अनेक कल्पोंतक स्वप्नमें भी मुक्तिके भागी नहीं होते ॥ ५॥ [९८] ऐसी हरि करत दासपर प्रीति । निज प्रभुता बिसारि जनके बस, होत सदा यह रीति ॥१॥ जिन वाँधे सुर-असुर, नाग-नर, प्रवल करमकी डोरी। सोइ अविछिन्न ब्रह्म जसुमति हठि बॉध्यो सकत न छोरी ॥२॥ जाकी मायावस विरंचि सिव, नाचत पार न पायो । करतल ताल वजाय ग्वाल-जुवतिन्ह सोइ नाच नचायो॥३॥ विस्वंभर, श्रीपति, त्रिभुवनपति, वेद-विदित यह लीख । बलिसों कछु न चली प्रभुता वरु द्वै द्विज मॉगी भीख ॥४॥ जाको नाम लिये छूटत भव-जनम-मरन दुख-भार। अंबरीस-हित लागि कृपानिधि सोइ जनमे दस बार ॥५॥