विनय-पत्रिका
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सुनि सीतापति-सील-सुभाउ ।
मोद न मन, तन पुलक, नयन जल सो नर हर खाउ ॥१॥
सिसुपनतें पितु, मातु, बंधु, गुरु, सेवक, सचिव, सपाउ ।
कहत राम-विधु-बदन रिसोहे सपनेहुँ लरयो न काउ ॥२॥
खेलत संग अनुज बालक नित, जोगवत अनट अपाउ ।
जीति हारि चुचुकारि दुलारत, देत दिवाचत ढाउ॥३॥
सिला साप-संताप-विगत भइ, परसत पावत पाउ ।
दई सुगति सोन हेरि हरप हिय, चरन छुएको पछिताउ ॥४॥
भव-धनु मंजि निदरि भूपति भृगुनाथ साइ गये ताउ ।
छमि अपराध, छमाइ पाँय परि, इती न अनत समाउ ॥५॥
कह्यो राज, वन दियो नारिवस, गरि गलानि गयो राउ ।
ता कुमातुको मन जोगवत ज्यौं निज तन मरम कुघाउ ॥ ६॥
कपि-सेवा-धस भये कनौड़े, कहो पवनसुत आउ ।
देवेको न कछु रिनियाँ हो धनिक तूं पत्र लिखाउ ॥७॥
अपनाये सुग्रीव विभीषन, तिन न तज्यो छल-छाउ ।
भरत सभा सनमानि सराहत, होत न हृदय अधाउ ॥ ८॥
निज करुना करतूति भगतपर चपत चलत चरचाउ ।
सकृत प्रनाम प्रनत जस बरनत, सुनत कहत फिरि गाउ ॥९॥
समुझि समुझि गुनग्राम रामके, उर अनुराग बढाउ।
तुलसिदास अनयास रामपद पाइहै प्रेम-पसाउ ॥१०॥
भावार्थ-श्रीसीतानाथ रामजीका शील-खभाव सुनकर जिसके
मनमें आनन्द नहीं होता, जिसका शरीर पुलकायमान नहीं होता,
जिसके नेत्रोंमें प्रेमके ऑसू नहीं भर आते, वह दुष्ट धूल फॉकता फिरे
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१६७
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