पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१६८

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- २७३ विनय-पत्रिका तोही ठीक है॥१॥बचपनसे ही पिता, माता, भाई, गुरु, नौकर, मन्त्री और मित्र यही कहते हैं कि हममेंसे किसीने स्वप्नमें भी श्रीरामचन्द्रजी- के चन्द्र-मुखपर कभी क्रोध नहीं देखा ॥ २ ॥ उनके साथ जो उनके तीनों भाई और नगरके दूसरे वालक खेलते थे, उनकी अनीति और हानिको वे सदा देखते रहते थे और अपनी जीतमे भी ( उनको प्रसन्न करनेके लिये ) हार मान लेते थे तथा उन लोगोंको पुकार-पुकारकर प्रेमसे अपना दॉव देते और दूसरोंसे दिलाते थे ॥ ३ ॥ चरणका स्पर्श होते ही पत्यरकी शिला अहल्या शापके सन्तापसे छूट गयी । उसे सद्गति दे दी; पर इस बातका तो उनके मनमें कुछ भी हर्प नहीं हुआ, उलटे इस वातका पश्चात्ताप अवश्य हुआ कि ऋषिपत्नीके मेरे चरण क्यों लग गये ? ॥ ४ ॥ शिवजीका धनुष तोडकर राजाओंका मान हर लिया इससे जब परशुरामजीने आकर क्रोध किया, तब उनका अपराध क्षमा करके उलटे श्रीलक्ष्मणजीसे माफी मॅगवायी और स्वयं उनके चरणोंपर गिर पड़े, इतनी सहिष्णुता और कहीं नहीं है ॥ ५॥ राजा दशरथने राज्य देनेको कहकर कैकेयीके वशमें होनेके कारण वनवास दे दिया और इसी ग्लानिके मारे वे मर भी गये । ऐसी बुरी माता कैकेयीका मन भी आप ऐसे सँभाले रहे, जैसे कोई अपने शरीरके मर्मस्थानके घावको देखता रहता है, अर्थात् आप सदा उसके मनके अनुसार ही चलते रहे ॥ ६॥ जब आप हनुमानजीकी सेवाके वश होकर उनके उपकृत हो गये, तव उनसे कहा कि 'हे पवनसुत ! यहाँ आ, तुझे देनेको तो मेरे 'पास कुछ भी नहीं है । मैं तेरा ऋणी हूँ, तू मेरा महाजन है,