पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१७३

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विनय-पत्रिका १७८ दूंगा ।। २ ॥ कानोंसे दूसरी बात नहीं सुनूंगा, जीभसे दूसरेकी चर्चा नहीं करूँगा, नेत्रोंको दूसरी ओर ताकनेसे रोक लूंगा और यह मस्तक केवल भगवान्को ही झुकाऊँगा ॥ ३ ॥ अब प्रभुके साय नाता और प्रेम करके दूसरे सबसे नाता और प्रेम तोड़ दूंगा। इस संसारमें मैं तुलसीदास जिसका दास कहाऊँगा फिर अपने सारे कर्मोंका बोझा भी उसी खामीपर रहेगा ॥४॥ [१०५] अवलो नसानी, अव न नसैहौ। राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं ॥१॥ पायेउँ नाम चार चिंतामनि, उर कर ते न खसैहीं। स्यामरूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसंहीं ॥२॥ परवस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज वस है न हँसैहौं। मन मधुकर पनकै तुलसी रघुपति-पद-कमल बसही ॥३॥ भावार्थ-अबतक तो ( यह आयु व्यर्थ ही) नष्ट हो गयी, परन्तु अब इसे नष्ट नहीं होने दूंगा । श्रीरामकी कृपासे संसाररूपी रात्रि बीत गयी है, (मैं संसारकी माया-रात्रिसे जग गया हूँ) अब जागनेपर फिर (मायाका) विछौना नहीं बिछाऊँगा ( अब फिर मायाके फंदेमें नहीं फंसूंगा) ॥१॥ मुझे रामनामरूपी सुन्दर चिन्तामणि मिल गयी है । उसे हृदयरूपी हाथसे कभी नहीं गिरने दूंगा । अथवा हृदयसे रामनामका स्मरण करता रहूँगा और हाथसे रामनामकी माला जपा करूँगा । श्रीरघुनाथजीका जो पवित्र श्यामसुन्दररूप है उसकी कसौटी बनाकर अपने चित्तरूपी सोनेको कराँगा । अर्थात् यह देलूंगा कि श्रीरामके ध्यानमें