पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१८१

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विनय-पत्रिका १८६ आपकी यह विचित्र रचना देखकर मन-ही-मन ( आपकी लीला) समझकर रह जाता हूँ॥१॥ कैसी अद्भुत लीला है कि, इस (संसार- रूपी )चित्रको निराकार (अव्यक्त) चित्रकार (सृष्टिकर्ता परमात्मा) - ने शून्य (माया) दीवारपर बिना ही रंगके ( संकल्पसे ही) बना दिया । (साधारण स्थूल चित्र तो धोनेसे मिट जाते हैं, परन्तु ) यह (महामायावी-रचित माया-चित्र ) किसी प्रकार धोनेसे नहीं मिटता। (साधारण चित्र जड है, उसे-मृत्युका डर नहीं लगता; परन्तु) इसको मरणका भय बना हुआ है। (साधारण चित्र देखनेसे सुख मिलता है, परन्तु ) इस ससाररूपी भयानक चित्रकी ओर देखनेसे दु.ख होता है॥२॥ सूर्यकी किरणोंमें (भ्रमसे) जो जल दिखायी देता है उस जल- में एक भयानक मगर रहता है; उस मगरके मुंह नहीं है, तो भी वहाँजो भी जल पीने जाता है, चाहे वह जड होया चेतन, यह मगर उसे ग्रस लेता है। भाव यह कि संसार सूर्यकी किरणोंमें जलके समान भ्रम- जनित है। जैसेसूर्यकी किरणों में जल समझकर उनके पीछे दौड़नेवाला मृग जल न पाकर प्यासा ही मर जाता है, उसी प्रकार इस भ्रमात्मक संसारमें सुख समझकर उसके पीछे दौड़नेवालोंको भी बिना मुखका मगर यानी निराकार काल खा जाता है॥३॥ इस संसारको कोई सत्य कहता है, कोई मिथ्या बतलाता है और कोई सत्य-मिथ्यासे मिला हुआ मानता है। तुलसीदासके मतसेतो (ये तीनों हीभ्रम हैं, जो इन तीनों भ्रमोंसे निवृत्त हो जाता है ( अर्थात् सब कुछ परमात्माकी लीला ही समझता है ) वही अपने असली खरूपको पहचान सकता है ॥४॥ [११२] केशव ! कारन कौन गुसाई। जेहि अपराध असाध जानि मोहिं तजेउ अग्यकी नाई ॥१॥