पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१९३

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विनय-पत्रिका इस संसारसे छुटकारा नहीं पाता । मैं किसी दूसरेद्वारा बॉघे बिना ही अपने ही हठ (मोह ) से तोतेकी तरह परवश बॅधा पडा हूँ (स्वयं अपने ही अज्ञानसे वेध-सा गया हूँ)॥२॥ जैसे किसीको स्वप्नमें अनेक प्रकारके रोग हो जाय जिनसे मानो उसकी मृत्यु ही आ जाय और बाहरसे वैध अनेक उपाय करते रहें, परन्तु जबतक वह जागता नहीं तबतक उसकी पीडा नहीं मिटती ( इसी प्रकार मायाके भ्रममें पडकर लोग बिना ही हुए संसारकी अनेक पीड़ा भोग रहे हैं, और उन्हें दूर करनेके लिये मिथ्या उपाय कर रहे हैं, पर तत्वज्ञानके बिना कभी इन पीड़ाओंसे छूटकारा नहीं मिल सकता) ॥३॥ वेद,गुरु, संत और स्मृतियाँ-सभी एक खरसे कहते हैं कि दृश्यमान जगत् असत् है (और काल्पनिक सत्ता मान लेनेपर ) दुःखरूप है। जबतक इसे त्यागकर श्रीरघुनाथजीका भजन नहीं किया जाता तबतक ऐसी किसकी शक्ति है जो इस विपत्तिका नाश कर सके ॥ ४॥ वेद निर्मल वाणीसे संसारसागरसे पार होनेके अनेक उपाय बतला रहे है, किन्तु हे तुलसीदास ! जबतक 'मैं' और 'मेरा' दूर नहीं हो जाता-अहंता-ममता नहीं मिट जाती, तबतक जीव कभी सुख नहीं पा सकता ॥ ५॥ [१२१३ हे हरि! यह भ्रमकी अधिकाई। देखत, सुनत, कहत, समुझत संशय-संदेह न जाई ॥१॥ जो जग मृषा ताप-त्रय-अनुभव होइ कहहु केहि लेखे । कहि न जाय मृगबारि सत्य, भ्रम ते दुख होइ बिसेखे ॥ २॥