पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विनय-पत्रिका २१० [१३२] राम-से प्रीतमकी प्रीति-रहित जीव जाय जियत । जेहि सुख सुख मानि लेत, सुख सो समुझ कियत ॥ १॥ ज-जहें जेहि जोनि जनम महि, पताल, वियत । तह-तह तू विषय-सुखहि, चहत लहत नियत ॥ २॥ कत बिमोह लटयोः फटयो गगन मगन सियत । तुलसी प्रभु सुजस गाइ, क्यों न सुधा पियत ॥३॥ भावार्थ-श्रीराम-सरीखे प्रीतमसे प्रेम न करके यह जीव व्यर्थ ही जीता है, अरे! जिस (विषय-सुख ) को तू सुख मान रहा है, तनिक विचार तो कर, वह सुख कितना-सा है ॥१॥ जहाँ-जहाँ जिस-जिस योनिमें-पृथ्वी, पाताल और खर्गमें-तूने जन्म लिया, तहाँ-तहाँ तूने जिस विषय-सुखकी कामना की वही प्रारब्धके अनुसार तुझे मिला (परन्तु कहीं भी तू परम सुखी तो नहीं हुआ ? )॥२॥ क्यों मोहमें फंसकर फटे आकाशको सीनेमें तल्लीन हो रहा है ? भाव यह है कि जैसे आकाशको सीना असम्भव है, वैसे ही सासारिक विषय-भोगोंमे आनन्द मिलना असम्भव है। इसलिये हे तुलसी । यदि तुझे आनन्दहीकी इच्छा है तो प्रभु श्रीरामचन्द्रजीका सुन्दर गुण-गानकर अमृत क्यों नहीं पीता ( जिससे अमर होकर आनन्दरूप ही वन जाय॥ ३॥ [१३३] तोसो हो फिरि फिरि हित, प्रिय पुनीत सत्य वचन कहत । सुनि मन, गुनि समुझि, क्यों न सुगम सुमग गहत ॥१॥