पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२१६

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२२१ विनय-पत्रिका 'सच्चिदानन्द' स्वरूपको भुला दिया, और इसी भ्रमके कारण तुझे दारुण दुःख भोगने पड़े। तुझे बड़े ही कठिन : जन्म-मरणरूपी) असहनीय दुःख मिले । सुखका तो स्वप्नमें भी लेश नहीं रहा। जिस मार्गमें अनेक संसारी कष्ट और शोक भरे पड़े हैं, तू उसीपर हठ- पूर्वक बार-बार चलता रहा । अनेक योनियोंमे भटका, बूढा हुआ, विपत्तियाँ सही ( मर गया)! पर अरे मूर्ख ! तूने इतनेपर भी श्रीहरिको नहीं पहचाना! अरे मूढ ! विचारकर देख, श्रीरामजीको छोड़कर ( किसीने ) क्या कहीं शान्ति प्राप्त की है ? [२] । हे जीव ! तेरा निवास तो आनन्दसागरमें है, अर्थात् तू आनन्दखरूप ही है, तो भी तू उसे भुलाकर क्यों प्यासा मर रहा है ? तू (विषय-भोगरूपी) मृगजलको सच्चा जानकर उसीमें सुख समझकर मग्न हो रहा है। उसीमें डूबकर नहा रहा है और उसीको 'पी रहा है ? परन्तु उस (विषय-भोगरूपी) मृगतृष्णाके जलमें तो (सुखरूपी) सच्चा जल तीन कालमे भी नहीं है। अरे दुष्ट ! तू अपने सहज अनुभव-रूपको भूलकर आज यहाँ आ पड़ा है। तूने ' अपने उस विशुद्ध, अविनाशी और विकाररहित परम सुखखरूपको छोड़ दिया है और व्यर्थ ही ( उसी प्रकार दुखी हो रहा है ) जैसे कोई राजा सपनेमें राज छोड़कर कैदखानेमें पड़ जाता है और व्यर्थ ही दुखी होता है अर्थात् सपने में भी राजा राजा ही है, परन्तु मोहवश अपने सकल्पसे राज्यसे वञ्चित होकर कारागारमें पड़ जाता है और जबतक जागता नहीं, तबतक व्यर्थ ही दुःख भोगता है।