पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२२५

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विनय-पत्रिका २३० चढ़ा राक्षसोंका विनाश कर देवताओंको अमय-दान दिया था।॥ ४॥ तथा जिस कर-कमलकी शीतल और सुखदायक छाया पाप, सन्ताप और मायाका नाश कर डालती है, हे प्रभु ! आपके उसी कर-कमल- की छाया यह तुलसीदास रात-दिन चाहा करता है।॥ ५॥ [१३९] दीनदयालु, दुरित दारिद दुख दुनी दुसह तिहुँ नाप तई है। देव दुवार पुकारत आरत, सबकी सर सुख हानि भई है ॥१॥ प्रभुके वचन, वेद-चुध-सम्मत, 'मम मूरति महिदेवमई है। तिनकी मति रिस-राग-मोह-मद, लोभ लालची लीलिलई है ॥२॥ राज-समाज कुसाज कोटिकटुकलपित कलुप फुचालनई है। नीति, प्रतीति प्रीति परमित पति हेतुवाद हठि हेरि हई है ॥३॥ आश्रम-वरन-धरम-विरहित जग, लोक-वेद-भरजाद गई है। प्रजा पतित, पाखंड-पापरत, अपने अपने रंग रई है ॥४॥ शांति,सत्य, सुभरीतिगई घटि,चढ़ी कुरीतिकपट-कलई है। सीदतसाधु,साधुतासोचति,खल विलसत हुलसतिखलई है॥५॥ परमारथ खारथ, साधनभये अफल,सफल नहिं सिद्धि सई है। कामधेनु-धरनी कलि गोमर-विवस विकल जामति न वई है ॥६॥ कलि-करनी वरनिये कहाँ लों, करत फिरत विनु टहल टई है। तापर दाँत पीसि कर मीजत, को जाने चित कहा ठई है ॥७॥ त्यों-त्योंनीच चढ़त सिर ऊपर,ज्योज्यो सीलबस ढीलदई है। सरुष वरजि तरजिये तरजनी, कुम्हिलैहै कुम्हडेकी जई है ॥८॥ दीजै दादि देखि ना तौ बलि, मही मोद-मंगल रितई है। भरे भाग अनुराग लोग कहें, राम कृपा-चितवनि चितई है ॥९॥