विनय-पत्रिका
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चढ़ा राक्षसोंका विनाश कर देवताओंको अमय-दान दिया था।॥ ४॥
तथा जिस कर-कमलकी शीतल और सुखदायक छाया पाप, सन्ताप
और मायाका नाश कर डालती है, हे प्रभु ! आपके उसी कर-कमल-
की छाया यह तुलसीदास रात-दिन चाहा करता है।॥ ५॥
[१३९]
दीनदयालु, दुरित दारिद दुख दुनी दुसह तिहुँ नाप तई है।
देव दुवार पुकारत आरत, सबकी सर सुख हानि भई है ॥१॥
प्रभुके वचन, वेद-चुध-सम्मत, 'मम मूरति महिदेवमई है।
तिनकी मति रिस-राग-मोह-मद, लोभ लालची लीलिलई है ॥२॥
राज-समाज कुसाज कोटिकटुकलपित कलुप फुचालनई है।
नीति, प्रतीति प्रीति परमित पति हेतुवाद हठि हेरि हई है ॥३॥
आश्रम-वरन-धरम-विरहित जग, लोक-वेद-भरजाद गई है।
प्रजा पतित, पाखंड-पापरत, अपने अपने रंग रई है ॥४॥
शांति,सत्य, सुभरीतिगई घटि,चढ़ी कुरीतिकपट-कलई है।
सीदतसाधु,साधुतासोचति,खल विलसत हुलसतिखलई है॥५॥
परमारथ खारथ, साधनभये अफल,सफल नहिं सिद्धि सई है।
कामधेनु-धरनी कलि गोमर-विवस विकल जामति न वई है ॥६॥
कलि-करनी वरनिये कहाँ लों, करत फिरत विनु टहल टई है।
तापर दाँत पीसि कर मीजत, को जाने चित कहा ठई है ॥७॥
त्यों-त्योंनीच चढ़त सिर ऊपर,ज्योज्यो सीलबस ढीलदई है।
सरुष वरजि तरजिये तरजनी, कुम्हिलैहै कुम्हडेकी जई है ॥८॥
दीजै दादि देखि ना तौ बलि, मही मोद-मंगल रितई है।
भरे भाग अनुराग लोग कहें, राम कृपा-चितवनि चितई है ॥९॥
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२२५
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