पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२४८

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२५३ विनय-पत्रिका ब्रह्मादिक विनती करी कहि दुख वसुधाको। रविकुल-कैरव-चंद भो आनंद-सुधाको ॥२॥ कौलिक गरत तुपार ज्यों तक तेज तियाको। प्रभु अनहित हित को दियो फल कोप कृपाको ॥ ३॥ हरयो पाप आप जाइकै संताप सिलाको। सोच-मगन काढ्यो सही साहिव मिथिलाको ॥ ४॥ रोष-रासि भृगुपति धनी अहमिति ममताको । चितवत भाजन करि लियो उपसम समताको ॥५॥ मुदित मानि आयसु चले बन मातु-पिताको। धरम-धुरंधर धीरधुर गुन-सील-जिता को ? ॥६॥ गुह गरीव गतग्याति हू जेहि जिउ न भखा को? पायो पावन प्रेम ते सनमान सखाको ॥ ७॥ सदगति सबरी गीधकी सादर करता को। सोच-सीव, सुग्रीवके संकट हरता को?॥८॥ राखि विभीषनको सके अस काल-गहा को। "तेहि काल कहाँ " आज विराजत राज है दसकंठ जहाँको ॥ ९॥ वालिस वासी अवधको बूझिये न खाको। सो पाँवर पहुँची तहाँ जहँ मुनि-मन थाको ॥१०॥ गति न लहै राम-नामसों विधि सो सिरजा को? सुमिरत कहत प्रचारि के वल्लभ गिरिजाको ॥१९॥ अकनि अजामिलकी कथा सानंद न भा को?। नाम लेत कलिकालहू हरिपुरहिं न गा को ? ॥१२॥ राम-नाम-महिमा करै काम-भूरुह आको। साखी वेद पुरान हैं तुलसी-तन ताको, ॥१३॥