पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२६०

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विनय पत्रिका जाते हैं (यह सब समझ-बूझकर ही अब ) तुलसी भी तुम्हारी शरणमें आया है, इसे भी अपना लो ॥ ३॥ राग मलार [१६१] तो सो प्रभु जो पै कहुँ कोउ होतो। तोसहि निपट निरादर निसिदिन रटिलटिऐसोघटि कोतो॥१॥ कृपा-सुधा-जलदान मॉगिवो कहाँ सो साँच निसोतो। खाति-सनेह-सलिल-सुख चाहत चित-चातक सो पोतो ॥२॥ काल-करम-वस मन कुमनोरथ कबहुँ कबहुँ कुछ भो तो। ज्या मुदमय वसि मीन वारि तजि उछरि भभरि लेत गोतो ॥३॥ जितो दुराव दासतुलसी उर क्यों कहि आवत ओतो। तेरे राज राय दशरथके लयो वयो विनु जोतो ॥ ४॥ भावार्थ-यदि तुझ-सरीखा कहीं कोई दूसरा समर्थ खामी होता, तो भला ऐसा कौन क्षुद्र था, जो निपट ही निरादर सहकर एवं दिन-रात तेरा नाम रटरटकर दुबला होता ॥१॥ मैं जो तुझसे कृपारूपी अमृतजल मॉग रहा हूँ, वह सचमुच ही निराला है। मेरा चित्तरूपी चातकका बच्चा प्रेमरूपी खातिनक्षत्रका आनन्दरूपी जल चाहता है ॥ २ ॥ काल तथा कर्मके प्रभावसे यदि कभी-कभी मनमे कोई बुरी कामना आ जाती है, (जिससे तेरी ओरसे चित्त हटने लगता है) तो वह ऐसा ही है, जैसे आनन्दसे जलमें रहती हुई मछली कभी-कभी उछलकर फिर घबराकर उसीमें गोता लगा जाती है ( जैसे मछलीको क्षणभरका भी जलका वियोग सहन नहीं होता, वैसे ही मेरा चित्त-चातक तेरे प्रेम-जलसे अलग होनेपर घबरा जाता