पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२६४

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विनय-पत्रिका और हाथों पिण्डदान देकर उसका उद्धार किया)॥२॥ मित्र सुग्रीवको स्त्रीके विरहमें देखकर आपने अपनी प्राणाधिका प्यारी सीताजी- को भी भुला दिया ( जानकीजीका पता लगानेकी बात भुला पहले वालिको मारकर सुग्रीवका दु.ख दूर किया )। रणभूमिमे शक्तिके लगनेसे प्यारे भाई लक्ष्मण मूर्छित होकर पडे हैं, पर ( उनका दुःख भूलकर ) आप हृदयमें विभीषणहीकी चिन्ता करने लगे (कि जब लक्ष्मण ही न बचेंगे, तब मैं रावणके साथ युद्ध करके क्या करूँगा। ऐसा होनेपर वानर, भालु तो अपने घर चले जायेंगे, परन्तु बेचारा विभीषण कहाँ जायगा 2 ) ॥ ३॥ घरमें, गुरु वसिष्ठके आश्रममें, प्रिय मित्रोके यहाँ अथवा ससुरालमें, जब-जब जहाँ आपकी मेहमानी हुई, तब वहाँ आपने यही कहा कि मुझे जैसा शबरीके बेरोंमें स्वाद और मिठास मिला था वैसा कहीं नहीं मिला ॥ ४॥ जब मुनिलोग आपके सहज खरूप अर्थात् निर्गुण परमात्मखरूपका बखान करने लगते हैं, तब तो आप लजाके मारे सिर झुका लिया करते हैं। किन्तु जब केवट और बंदर आपको मित्र' एवं 'भाई' कहते हैं, तो अपनी बड़ाई मानते हैं ( अथवा केवटका मित्र कहे जानेपर आप प्रसन्न होते हैं और वानरबन्धु कहलानेमें अपना बडप्पन समझते हैं)॥५॥ हे भाई! रघुनाथजीके समान प्रेमके वश रहनेवाला तीनों लोकों और तीनों कालोंमें दूसरा कोई नहीं है। जिन्होंने हनुमानजीसे यहॉतक कह दिया कि 'मैं तेरा ऋणी हूँ' उनके समान सेवाके लिये कृतज्ञ होनेवाला और कौन है ? ॥ ६॥ हे तुलसी ! श्रीरामचन्द्रजीका ऐसा स्नेह और शील देखकर भी उनके प्रति यदि