पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२७८ विनय-पत्रिका सुन्दर गहने और ( मुलायम ) करगेको स्पर्श करना चाहता है, वैसे श्रीरघुनायजीके चरण-कमलोंका स्पर्श करनेके लिये यह कमी नहीं तरसता ॥ ४ ॥ जैसे मैंने शरीर, वचन और हृदयसे बुरे-बुरे देवों और दुष्ट खामियोंकी सत्र प्रकारसे मेवा की, वैसे उन रघुनायजीकी सेवा कभी नहीं की, जो (तनिक सेवासे ) अपनेको खूब ही कृतज्ञ मानने लगते हैं और एक बार प्रणाम करते ही ( अपार करुणाके कारण) सकुचा जाते है ॥५॥जैसे इन चञ्चल चरणोंने लोभवश, लालची बनकर द्वार द्वार ठोकरें खायी है, वैसे ये अभागे श्रीसीतारामजीके ( पुण्य ) आश्रमों में जाकर कभी खममें भी नहीं थके। (खप्नमें भी कभी भगवान्के पुण्य आश्रमों में जानेका कष्ट नहीं उठाया) ॥ ६॥ हे प्रभो ! (इस प्रकार ) मेरे सभी अङ्ग आपके चरणोंसे विमुख हैं। केवल इस मुखसे आपके नामकी ओट ले रक्खी है। (और यह इसलिये कि) तुलसीको एक यही निश्चय है कि आपकी मूर्ति कृपामयी है ( आप कृपासागर होनेके कारण, नामके प्रभावसे मुझे अवश्य अपना लेंगे ) ॥ ७ ॥ [१७१] कीजै मोको जमजातनामई। मतम-से सुचि सुहृद साहिबहि, में सठ पीठि दई ॥ १ ॥ गरभवास दस मास पालि पितु-मातु-रूप हित कीन्हों। जहि विवेक सुसील खलाह, अपराधिहि आदर दीन्हों॥२॥ कर करौं अंतरजामिहुँ सो. अघ ब्यापकहिं दुरावौं। ऐसह कुमति कुसेवक पर रघुपति न कियो मन बावौं । ३ उदरभरौं किंकर कहाइवेच्यो विषयनि हाथ हियो । मोसे वंचकको कृपालु छल छोड़ि के छोह किया है।