पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२८३ विनय-पत्रिका नज्यो पिता प्रहलाद, विभीषन बंधु, भरत महतारी। बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-वनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी ॥२॥ नाते नेह रामके मनियत सुहृद सुसेव्य जहाँ लो। अंजन कहा ऑखि जेहि फूट, बहुतक कहाँ कहाँ लौं ॥३॥ तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो। जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो॥४॥ भावार्थ-जिसे श्रीराम-जानकीजी प्यारे नहीं, उसे करोड़ों शत्रुओंके समान छोड देना चाहिये, चाहे वह अपना अत्यन्त ही प्यारा क्यों न हो॥१॥ ( उदाहरणके लिये देखिये) प्रह्लादने अपने पिता ( हिरण्यकशिपु ) को, विभीषणने अपने भाई (रावण) को, भरतजीने अपनी माता (कैकेयी) को, राजा बलिने अपने गुरु ( शुक्राचार्यको ) को और व्रज-गोपियोंने अपने-अपने पतियोंको ( भगवत्प्राप्तिमें बाधक समझकर ) त्याग दिया, परन्तु ये सभी आनन्द और कल्याण करनेवाले हुए ॥ २॥ जितने सुहृद् और अच्छी तरह पूजने योग्य लोग हैं, वे सब श्रीरघुनाथजीके ही सम्बन्ध और प्रेमसे माने जाते हैं । बस, अब अधिक क्या कहूँ। जिस अश्लन- के लगानेसे आँखें ही फट जायें, वह अञ्जन ही किस कामका ? ॥३॥ हे तुलसीदास! जिसके कारण (जिसके सङ्ग या उपदेशसे) श्रीरामचन्द्र- जीके चरणों में प्रेम हो, वही सब प्रकारसे अपना परम हितकारी, पूजनीय और प्राणोंसे भी अधिक प्यारा है। हमारा तो यही मत है ॥४॥ [१७५] जो पैरहनिरामसो नाहीं। तो नर खर कूकर सूकर सम वृथा जियत जग माहीं ॥१॥