पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२८०

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२८५ विनय-पत्रिका अपने अपनेको सब चाहत नीको । मूल दुहूँको दयालु दूलह सीको।३। जीवको जीवन प्रानको प्यारो। सुखहूको सुख रामसो बिसारो।४। कियो करैगो तोसे खलको भलो । ऐसे सुसाहब सो तू कुचाल क्योचलो॥ ५॥ तुलसी तेरी भलाई अजहूँझै । राढ़उ राउत होत फिरिकै जूझै ।६। , भावार्थ-अरे नीच ! तूने तो श्रीरामचन्द्रजी-सरीखे सुन्दर खामीसे न प्रेम ही किया और न सम्बन्ध ही जोड़ा। परन्तु इतना अनादर करनेपर भी उन्होंने तुझे नहीं छोड़ा ॥१॥ तूने ( जन्म- जन्मान्तरमें ) नये-नये नाते और नया-नया प्रेम जोड़ा जो सब व्यर्थ और नीरस थे तथा (उलटे) तेरे शरीरके जलानेवाले और प्राणोंके ग्राहक थे ॥ २ ॥ अपना और अपनोंका तो सभी भला चाहते हैं, किन्तु दोनोंकी भलाईके मूल तो एक श्रीजानकीवल्लभ ही हैं ॥ ३ ॥ वह जीवोंके जीवन हैं, प्राणों के प्यारे हैं और सुखके भी सुख हैं, ऐसे श्रीरामचन्द्रजीको तूने भुला दिया ॥ ४ ॥ जिन्होंने तेरा सदा भला किया और आगे भी जो भला ही करेंगे, अरे ऐसे सुन्दर खामीके साथ तू इतनी कुचालें क्यों चला ? ॥ ५॥ रे तुलसी! यदि तू अब भी समझ जाय तो तेरा भला हो सकता है। क्योंकि बार-बार लड़नेसे कायर भी शूरवीर हो जाता है ॥६॥ १७७] जो तुम त्यांगो राम हौ तौ नहिं त्यागों । परिहरि पाँय काहि अनुरागों ॥१॥ सुखद सुप्रभु तुम सोग माहीं। श्रवन-नयन मन-गोचर नाहीं॥