पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२८१

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विनय-पत्रिका ही जड़ जीव, ईस रघुराया। तुम मायापति, हाँ बसमाया ॥३॥ हाँ तो कुजाचक, स्वामी सुदाता।हाँ कुपूत, तुम हितु-पितु-माता। जो पैकहुँ कोउबूझत बातो। तौ तुलसीविनु मोल विकातो॥५॥ भावार्थ-हे रामजी ! यदि आप मुझे त्याग भी दें तो भी मैं आपको नहीं छोड़ेगा, क्योंकि आपके चरणोंको छोड़कर मै और किसके साथ प्रेम करूँ ॥१॥ आपके समान सुख देनेवाला सुन्दर खामी इस संसारमें आजतक न कानोंसे सुना है, न ऑखसि देखा है और न मनसे अनुमानमें ही आता है ॥२॥ हे रघुनाथजी! मैं जड जीव हूँ और आप ईश्वर हैं। आप मायाके खामी हैं ( माया आपके वशमें है ) और मैं मायाके वश होकर रहता हूँ ॥३॥ मैं तो एक कृतन भिखमंगा हूँ और आप बड़े उदार स्वामी है, मैं आपका कुपूत हूँ और आप हित करनेवाले माता-पिता हैं। भाव यह है कि लड़का कुपूत होनेपर भी माँ-बाप उसका हित ही करते हैं, ऐसे ही आप भी सदा मेरा पालन-पोषणही किया करते हैं॥४॥ यदि कहीं कोई भी मेरी बात पूछता, तो यह तुलसीदास बिना ही मोल (उसके हाथ) बिक जाता । (परन्तु आपके सिवा मुझ-सरीखे नीचको कौन रखता है । अतः मैं आपको कभी नहीं छोड़ेगा)॥५॥ [१७८] भये उदास राम, मेरे आस रावरी। आरत खारथी सब कहै वात वावरी ॥१॥ जीवनको दानी, धन कहा ताहि चाहिये। प्रेम-नेमके निवाहे चातक सराहिये ॥२॥ मौनते न लाभ-लेस पानी पुन्य पीनको। .