पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२९१

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विनय-पत्रिका करम-कलाप परिताप पाप-साने सब, ____ज्यों सुफूल फूले तरु फोकट फरनि । दंभ, लोभ, लालच, उपासना बिनासि नीके, सुगति साधन भई उदर भरनि ॥२॥ जोग न समाधि निरुपाधि न विराग-ग्यान, यचन विशेप वेप, कहूँ न करनि । कपट फुपथ काटि. कहनि-रहनि खोटि सकल सराहें निज निज आचरनि ॥३॥ मरत महेस उपदेस हैं कहा करत, सुरसरि-तीर कासी धरम-घरनि । राम नामको प्रताप हर कहै, जपें आप, जुग जुग जानें जग, वेदहूँ वरनि ॥४॥ मति राम-नाम ही सो, रति राम-नाम ही सों, गति गम-नाम ही की विपति-हरनि । राम नामलों प्रति प्रीति राख्ने कबहुँको तुलसी ढरेंगे राम आपनी ढरनि ॥५॥ भावार्थ-श्रीराम-नाम जपनेसे ही मनकी जलन मिट जाती है। इस कलियुगमें ( योग यज्ञादि) दूसरे साधन तो सब वैसे ही व्यर्थ हो जाते हैं जैसे अँधेरा दूर करनेके लिये वित्रलिखित सूर्य व्यर्थ है।॥ १॥ कर्म तो बहुतेरे दुख और पापोंमें सने हैं। कोंका करना इस समय ऐसा है, जैसे किसी वृक्षमें बड़े ही सुन्दर फूल फूलें, पर फल लगे ही नहीं । दम्भ, लोभ और लालचने उपासनाका भलीभाँति नाश कर दिया है और मोक्षका साधन ज्ञान आज पेट भरनेका साधन हो रहा है । ( इस प्रकार कर्म, उपासना और ज्ञान तीनोंकी ही बुरी