विनय-पत्रिका
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ही व्याप्य हो रहे हैं तथा असीम, अनन्त हैं ( उनको तो वही जान
सकता है जिसको कृपापूर्वक वे जनाते हैं, उनकी कृपाका अनुभव
नित्य-निरन्तर होनेवाले भजनसे होता है, अतः तीनों अवस्थाओंमें
भजन ही करना चाहिये ) ॥ १४ ॥ चतुर्दशीके समान गो-पाल
(इन्द्रियों के नियन्ता ) भगवान् चराचररूपसे चौदहों भुवनोंमें रम
रहे हैं । परन्तु जबतक जीवकी भेद-बुद्धि दूर नहीं होती तबतक
श्रीरघुनाथजी ससाररूपी जालको नहीं काटते, जीवको जन्म-मरणसे
नहीं छुडाते (संसार-बन्धनसे छूटना हो तो अभेद-बुद्धिसे भगवान्को
भजना चाहिये)॥१५॥ पूर्णमासीके समान (भगवान्की प्राप्तिका)पंद्रहवाँ
साधन, जो सर्वोत्कृष्ट और पूर्ण है यह है कि प्रेम-भक्तिके रसमें सराबोर
होकर भक्तको श्रीहरिका रस-भगवान्का परम रहस्यमय तत्व जानना
चाहिये । इसीसे वह सर्वत्र समदर्शी, शान्त, अहकाररहित, ज्ञानखरूप
और विषयोंसे उदासीन हो सकता है ॥ १६ ॥ ( यहाँ गोसाईजीने
फाल्गुन-मासकी पूर्णमासीका वर्णन किया है ! यह पूर्णमासी और
महीनोंकी पूर्णमासीसे कहीं अधिक है, इस आनन्दमयी होलीकी
फाल्गुनी पूर्णिमाके दिन ) दैहिक, दैविक, भौतिक-इन तीनों
तापोंकी होली जलाकर भगवान्के साथ (प्रेमकी ) खूब फाग खेलनी
चाहिये ( यही परम आनन्दकी अवस्था है)। यदि तू इस परमानन्दकी
इच्छा करता है तो इसी मार्गपर चल (इन्हीं साधनोंमें लग जा)॥१७॥
वेद, पुराण और विद्वानोंका यही एक मत है कि भगवान्की
लीलाओंका गान ही होलीके गीत हैं । (खूब हरिकीर्तन करना
चाहिये ) इन सब साधनोंपर विचार करके संसार-सागरसे तर
जाना चाहिये। फिर कभी ( भूलकर भी) यमलोकमें ले जानेवाली
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३२५
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