पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३३

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- विनय-पत्रिका तुलसीदास श्रीरघुनायजीके चरणोंमें परम प्रेम और अचल नेम चाहता हूँ, सो प्रसन्न होकर मुझे दो और मेरी रक्षा करो॥३॥ गङ्गा-स्तुति राग रामकली जय जय भगीरथनन्दिनि, मुनि-चय-चकोर-चन्दिनि, नर-नाग-विवुध-वन्दिनि, जय जह-वालिका। विस्तु-पद-सरोजजासि, ईस-सीसपर विभासि, त्रिपथगासि, पुन्यरासि, पाप-छालिका ॥१॥ विमल विपुल बहसि बारि, सीतल त्रयताप-हारि, भँवर बर बिभंगतर तरंग-मालिका । पुरजन पूजोपहार, सोभित ससि धवलधार, भंजन भव-भार, भक्ति-कल्पथालिका ॥२॥ निज तटवासी विहंग जल-थल-चर पसु-पतंग, कीट, जटिल तापस सब सरिस पालिका तुलसी तव तीर तीर सुमिरत रघुबंस-वीर, विचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका ॥३॥ भावार्थ-हे भगीरथनन्दिनी ! तुम्हारी जय हो, जय हो। तुम मुनियोंके समूहरूपी चकोरोंके लिये चन्द्रिकारूप हो। मनुष्य, नाग और देवता तुम्हारी वन्दना करते हैं। हे जहुकी पुत्री ! तुम्हारी जय हो। तुम भगवान् विष्णुके चरणकमलसे उत्पन्न हुई हो; शिवजीके मस्तकपर शोभा पाती हो, वर्ग, भूमि और पाताल-इन तीन मागोंसे तीन धाराओंमें होकर बहती हो । पुण्योंकी राशि और