पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३४३

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विनय-पत्रिका ३४८ यह हाल है तब ) और देवताओंकी तो बात ही क्या कही जाय ? वे तो खार्थके मित्र हैं ही। उनमेंसे किसीने भी कभी भयभीत शरणागतकी रक्षा नहीं की ॥ ४ ॥ सेवा करनेसे कौन धन नहीं देता है ? (सभी देते हैं ) । यह तो दुनियाकी चाल ही है । किन्तु हे तुलसीदास । दीनोंपर तो एक श्रीरघुनाथजीका ही स्लेह है। वे बिना ही सेवा किये केवल शरण होते ही अपना लेते हैं, देवताओंकी भाँति सर्वाङ्गपूर्ण अनुष्ठानकी अपेक्षा नहीं करते )॥५॥ [२१७] जो पै दूसरो कोउ होइ। तो हो वारहि बार प्रभु कत दुख सुनावौं रोइ ॥१॥ काहि ममता दीनपर, काको पतितपावन नाम । पापमूल अजामिलहि केहि दियो अपनो धाम ॥२॥ रहे संभु विरंचि सुरपति लोकपाल अनेक । सोक-सरि वूड़त करीसहि दई काहु न टेक ॥३॥ विपुल-भूपति-सदसि मह नर-नारि को 'प्रभु पाहि'। सकल समरथ रहे, काहु न बसन दीन्हों ताहि ॥४॥ एक मख क्यों कही करुनासिंधुके गुन-गाथ? भकहित धरि देह काह न फियो कोसलनाथ 1॥५॥ मापसे कहूँ सौपिये मोहि जो पै अतिहि घिनात । दासतुलसी और विधि क्यों चरन परिहरि जात ॥६॥ मावार्थ-हे नाय ! यदि कोई दूसरा (मुझे शरणमें रखनेवाला) होता, तो मैं बार-बार रोकर अपना दु.ख आपको ही क्यों सुनाता ? ॥१॥(आपको छोडकर) दीनापर किसकी ममता है, पतितपावन