पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३४६

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विनय-पत्रिका [२१९ ] द्वार हौं भोर ही को आजु । रटत रिरिहा आरि और न, कौर ही ते.काजु ॥ १॥ कलि कराल दुकाल दारुन, सव कुभाँति कुसाजु । नीच जन, मन ऊँच, जैसी कोढ़मेकी खाजु ॥२॥ हहरि हियमें सदय वूझयो जाइ साधु-समाजु। मोहसे कहुँ कतहुँ कोउ तिन्ह कहन्यो कोसलराजु ॥३॥ दीनता-दारिद दलै को कृपावारिधि बाजु। दानि दसरथरायके, तू बानइत सिरताजु ॥ ४॥ जनमको भूखो भिखारी हों गरीबनिवाजु । पेट भरि तुलसिहि जैवाइय भगति-सुधा-सुनाजु ॥५॥ भावार्थ-हे भगवन् ! आज सबेरेसे ही मैं आपके दरवाजेपर अड़ा बैठा हूँ। रें-रें करके रट रहा हूँ, गिड़गिडाकर मॉग रहा हूँ, मुझे और कुछ नहीं चाहिये। बस, एक कोर टुकड़ेसे ही काम बन जायगा । (जरा-सी कृपा-दृष्टिसे ही मैं पूर्णकाम हो जाऊँगा) ॥१॥ ( यदि आप यह कहें कि कोई उद्यम क्यों नहीं करता ? गिड़गिड़ा- कर भीख क्यों माँगता है, तो इसका उत्तर यही है कि) इस भयंकर कलियुगमें (उत्तम साधनरूपी उद्यमका ) बड़ा ही दारुण दुर्मिक्ष पड़ गया है, जितने उद्यम और उपाय-साधन हैं, सभी बुरे हैं। कोई-सा भी निर्विन पूरा नहीं होता, इससे आपसे भीख मांगना ही मैंने उचित समझा है। (कलियुगी) मनुष्योंकी करतूत तो नीच है (दिन-रात विषयोंके लिये ही पापमें रत रहते हैं) और उनका मन ऊँचा है ( चाहते हैं सच्चा सुख मिले, परन्तु