पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

FREEEEEEEEEEEEEEEEEEE विनय-पत्रिका लेत केहरिको बयर ज्यों भेक हनि गोमाय । त्योहि राम-गुलाम जानि निकाम देत कुदाय ॥४॥ अनि याके कपट-करतब अमित अनय-अपाय । सुखी हरिपुर बसत होत परीछितहि पछिनाय ॥ ५॥ कृपासिंधु ! बिलोकिये जन-मनकी साँसति सार्य । सरन आयो, देव ! दीनदयालु ! देखन पाय ॥६॥ निकट बोलि न बरजिये, बलि जाउँ, हनिय न हाय । देखिहैं हनुमान गोमुख नाहरनिके न्याय ॥ ७॥ अरुन मुख, 5 बिकट, पिंगल नयन रोष-कषाय । बीर सुमिरि समीरको घटिहै चपल चित चाय ॥ ८॥ बिनय सुनि बिहँसे अनुजसो बचन के कहि भाय । 'भली कही' को लषन हूँ हँसि, बने सकल वनाय ॥९॥ 'दई दीनहिं दादि, सो सुनि सुजन-सदन बवाय । मिटे संकट-सोच, पोच-प्रपंच, पाप-निकाय ॥१०॥ पेखि प्रीति-प्रतीति जनपर अगुन अनघ अमाय । दासतुलसी कहत मुनिगन, 'जयति जय उरुगाय' ॥११॥ भावार्थ-हे कोशलराज ! मेरी रक्षा कीजिये । आपके नामको छोड़कर मुझे न तो कहीं और ठौर-ठिकाना है और न किसीका सहारा ही है (मेरी तो बस, आपके नामतक ही दौड़ है) ॥१॥ आप स्वयं समझ-बूझकर अपने सेवकोंका ऐसा कल्याण कर देते हैं, जैसा (सगे) माता-पिता भी नहीं करते ( माता-पिता भी मोक्षसुख नहीं दे सकते)। हे श्रीरामजी ! आपका नाम ही मेरा गुरु, देवता, स्वामी, मित्र और सहायक है ॥२॥ हे नाथ ! आपके राम-राज्य में मलिन मनवाले (कलिकाल) वि. प० २३-