पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३५५

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विनय-पत्रिका हो जानत भलिभाँति अपनपी, प्रभु-सो सुन्यो न साके। उपल, भील, खग, मृग, रजनीचर, भले भये करतब काके ॥३॥ मोकोभलोराम-नाम सुरतरु-सो,रामप्रसाद कृपालु कृपाके। तुलसी सुखी निसोच राज ज्यों वालक माय-यवाके ॥४॥ भावार्थ-उसीके मनमें किसी दूसरेका भरोसा होगा, जिसे या तो कहीं श्रीरामचन्द्रजीके समान कोई दूसरा मालिक मिल गया हो या जिसके अपने साधन आदिका बल हो (मुझे न तो कोई ऐसा मालिक ही मिला है, और न किसी प्रकारका साधन-बल ही है) ॥१॥ अथवा जिसे अज्ञान, काम और अभिमानमें मतवाला हो जानेके कारण कराल कलिकाल न सूझता हो अयत्रा जिसके चित्तपर सब प्रकारसे ( साधन करके और इधर-उधर भटककर ) थके हुए लोगोंके हितकारी स्वामी रामचन्द्रजीका ( दीन और शरणागतवत्सल) खभाव सुननेपर भी उसका स्मरण न रहा हो । ( मुझे तो अपने खामीके दयालु खभावका सदा ध्यान बना रहता है ॥२॥ मैं तो अपने ( क्षुद्र ) पुरुषार्थको भी भलीभाँति जानता हूँ, एवं मैंने श्रीरघुनाथजीके अतिरिक्त और किसी खामीकी ऐसी कीर्ति भी नहीं सुनी (जो इस तरह महापापी शरणागतोंको अपना लेता हो) पत्थर (अहल्या), भील, पक्षी (जटायु), मृग (मारीच) और राक्षस (भीषण)-इन सबोंमें किसके कर्म शुभ थे ? (किन्त भगवान इन सबका उद्धार कर दिया ) ॥ ३॥ मेरे लिये तो एक राम-नाम ही कल्पवृक्ष हो गया है, और वह कृपालु श्रीरामचन्द्रजीकी कृपासे हुआ है ( इसमें भी मेरा कोई पुरुषार्थ नहीं है ) । अब तुलसी इस