पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३५७

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विनय-पत्रिका ३६२ करनेसे अमृत-रस परोसा हुआ देखता हूँ ( मैंने अनेक देवभोग्य भोग भोगे, परन्तु कहीं तृप्ति नहीं हुई। पूर्ण, नित्य परमानन्द कहीं नहीं मिला । अब श्रीराम-नामका स्मरण करते ही मैं देख रहा हूँ कि मुक्तिका थाल मेरे सामने परोसा रक्खा है अर्थात् ब्रह्मानन्दरूप मोक्षपर तो मेरा अधिकार ही हो गया। परोसी थालीके पदार्थको जब चाहूँ तब खा लूँ, इसी प्रकार मोक्ष तो जब चाहूँ तभी मिल जाय। परन्तु मैं तो मुक्त पुरुषोंकी कामनाकी वस्तु श्रीराम-प्रेम- रसका पान कर रहा हूँ।)॥३॥ मेरे लिये राम-नाम खार्थ और परमार्थ दोनोंका ही साधक है, ( मुक्तिरूपी स्वार्थ और भगवत्प्रेमरूपी परम अर्थे दोनों ही मुझे श्रीराम-नामसे मिल गये। यह बात 'हाथी है या मनुष्य' की-सी दुबिधा-भरी नहीं है (क्योंकि मुझे तो प्राप्त है)। मैंने सुना है कि इसी नामके प्रभावसे बंदरोंकी सेना पत्यरोंका पुल बनाकर समुद्रको पार कर गयी थी॥ ४ ॥ जहाँ जिसमा प्रेम और विश्वास है, वहीं उसका काम पूरा हुआ है, (इसी सिद्धान्तके अनुसार ) मेरे तो माँ-बाप ये दोनों अक्षर- और am_हैं। मैं तो इन्हींके आगे बालहठसे अड़ रहा हूँ, मचल रहा है ॥५॥ यदि मैं कुछ भी छिपाकर कहता होऊँ तो भगवान् शिवजी साक्षी हैं, मेरी जीभ जलकर या गलकर गिर जाय। (यह कवि- कल्पना या अत्युक्ति नहीं है, सच्ची स्थितिका वर्णन है) यही समझमें आया कि अपना कल्याण एक राम-नामसे ही हो सकता है।६॥ [२२७] नाम राम रावरोई हित मेरे। खारथ-परमारथ साथिन्ह सो भुज उठाइ कहाँ टेरे ॥