३६५
विनय-पत्रिका
दुःख भी सुखरूप बन जाते हैं) ॥२॥ यदि कोई कहे कि नामके
प्रमावसे पत्थर में कमल उत्पन्न हो गया, तो उसे भी सत्र ही समझना
चाहिये ( क्योंकि राम-नामके प्रभावसे असम्भव भी सम्भव हो जाता
है) जिस नामको सुनने और स्मरण करनेसे भीलनी शबरी भी परम
भाग्यवती तया शील और पुण्यमयी बन गयी ( उससे क्या नहीं हो
सकता !) ॥ ३ ॥ वाल्मीकि और अजामिछके पास तो कोई भी
साधनकी सामग्री नहीं थी, किन्तु उन्होंने भी उलटे-पुलटे राम-नामके
माहात्म्यसे धुंधचियोंसे जवाहरात जीत लिये (परम रत परमात्माको
प्राप्त कर लिया )॥ ४॥ नामकी शक्ति श्रीरघुनायजीसे भी अधिक है
(क्योंकि श्रीरामजी इस नामसे ही वशमें होते हैं ) इस राम-नामने
प्रामीण मनुष्योंको चतुर नागरिक बना दिया (असभ्योंको परम पुनीत
महात्मा बना दिया)। जिसे जपकर तुलसीदास-सरीखे बुरे जीव भी
डंकेकी चोट अच्छे हो गये (फिर कहनेको क्या रह गया ?)॥५॥
[२२९]
गरेगी जीह जो कहीं औरको हौं।
जानकी-जीवन ! जनम-जनम जगज्यायोतिहारेहि कौरको हो ॥१॥
तीनि लोक, तिहुँ काल न देखत सुहृद रावरे जोरको हो।
तुमसों कपट करि कलप-कलप कृमि हौं नरक घोरको हौं ॥२॥
कहाभयोजीमन मिलि कलिकालहिं कियो भौतुवारको हौं ।
तुलसिदास सीतल नित यहि बल, बड़े ठेकाने ठौरको हौं ॥३॥
. भावार्थ-यदि मैं कहूँ कि मैं रामजीको छोड़कर किसी दूसरेका
हूँ तो मेरी यह जीम गल जाय । हे श्रीजानकीजीयन ! मैं तो इस
ससारमें जन्म-जन्ममें आपके ही टुकड़ोंसे ( जूठनसे )..जी रहा
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३६०
Jump to navigation
Jump to search
यह पृष्ठ शोधित नही है
