पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३६१

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विनय-पत्रिका हूँ॥१॥ तीनों लोकोंमें तथा तीनों कालोंमें (पृथ्वी, पाताल और खर्गमें एवं भूत, वर्तमान और भविष्यत्में ) आपकी वरावरीका सुहद् (अहेतुक प्रेमी ) दूसरा कहीं नहीं दिखायी दिया । यदि मैं आपके साथ कपट करता होऊँ, तो कल्प-कल्पान्तरतक घोर नरकका कीड़ा होऊँ ॥२॥ क्या हुआ, जो कलियुगने मिलकर मेरे मनको भँवरका भौंतुवा बना दिया । भाव यह कि जैसे भौंतुवा जलमें रहता हुआ भी जलके ऊपर ही तैरता रहता है, उसमें डूब नहीं सकता, वैसे ही कलिने यधपि मुझे भव-नदीमें डाल दिया है, तथापि मैं आपके प्रतापसे इस विषय-प्रवाहमें बहूँगा नहीं, ऊपर-ही-ऊपर तैरता रहूँगा। विषयोंका मुझपर कोई असर नहीं होगा। तुलसीदास इसीभरोसेपर सदा शान्त रहता है कि वह बड़े ठौर-ठिकानेका है (श्रीरामजीके दरबारका गुलाम है। कलियुग-सरीखेटुच्चे उसका क्या कर सकते हैं!) ॥ ३ ॥ [२३०] अकारन को हितू और को है। बिरद गरीव-निवाज' कौनको भौंह जासु जन जोहै ॥१॥ छोटो बड़ो चहत सव खारथ, जो बिरंचि विरचो है। कोल कुटिल, कपि-भालु पालिवो कौन कृपालुहि सोहै ॥२॥ काको नाम अनख आलस कहे अघ अवगुननि विछोहै। को तुलसीसे कुसेवक संग्रहो, सठ सब दिन साई द्राहै ॥३॥ भावार्थ-विना ही कारण हित करनेवाला ( श्रीरामचन्द्रजीको लोडकर ) दसरा कौन है । गरीबोंको निहाल कर देनेका विरद किसका है कि जिसकी (कृपामयी) भृकुटीकी ओर भक्त ताका करते हैं ॥१॥ छोटे या बड़े जो भी ब्रह्माके रचे हए हैं सभी