विनय-पत्रिका
हूँ॥१॥ तीनों लोकोंमें तथा तीनों कालोंमें (पृथ्वी, पाताल और
खर्गमें एवं भूत, वर्तमान और भविष्यत्में ) आपकी वरावरीका सुहद्
(अहेतुक प्रेमी ) दूसरा कहीं नहीं दिखायी दिया । यदि मैं आपके
साथ कपट करता होऊँ, तो कल्प-कल्पान्तरतक घोर नरकका कीड़ा
होऊँ ॥२॥ क्या हुआ, जो कलियुगने मिलकर मेरे मनको भँवरका
भौंतुवा बना दिया । भाव यह कि जैसे भौंतुवा जलमें रहता हुआ
भी जलके ऊपर ही तैरता रहता है, उसमें डूब नहीं सकता, वैसे
ही कलिने यधपि मुझे भव-नदीमें डाल दिया है, तथापि मैं आपके
प्रतापसे इस विषय-प्रवाहमें बहूँगा नहीं, ऊपर-ही-ऊपर तैरता रहूँगा।
विषयोंका मुझपर कोई असर नहीं होगा। तुलसीदास इसीभरोसेपर सदा
शान्त रहता है कि वह बड़े ठौर-ठिकानेका है (श्रीरामजीके दरबारका
गुलाम है। कलियुग-सरीखेटुच्चे उसका क्या कर सकते हैं!) ॥ ३ ॥
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अकारन को हितू और को है।
बिरद गरीव-निवाज' कौनको भौंह जासु जन जोहै ॥१॥
छोटो बड़ो चहत सव खारथ, जो बिरंचि विरचो है।
कोल कुटिल, कपि-भालु पालिवो कौन कृपालुहि सोहै ॥२॥
काको नाम अनख आलस कहे अघ अवगुननि विछोहै।
को तुलसीसे कुसेवक संग्रहो, सठ सब दिन साई द्राहै ॥३॥
भावार्थ-विना ही कारण हित करनेवाला ( श्रीरामचन्द्रजीको
लोडकर ) दसरा कौन है । गरीबोंको निहाल कर देनेका विरद
किसका है कि जिसकी (कृपामयी) भृकुटीकी ओर भक्त ताका
करते हैं ॥१॥ छोटे या बड़े जो भी ब्रह्माके रचे हए हैं सभी
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३६१
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