पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३६२

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३६७ विनय-पत्रिका अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं, (बिना खार्थक कोई किसीका हित नहीं करता) भला भील, बंदर और रीछ आदिका पालन- पोषण करना (श्रीरामजीके सिवा ) दूसरे किस कृपाल खामीको शोभा देता है ? ॥ २ ॥ ऐसा किसका नाम है जिसे आलस्य या क्रोधके साथ भी लेनेपर पाप और अवगुण दूर हो जाते हैं। (श्रीराम-नाम ही ऐसा है।) जिसने मूर्खतावश सदा अपने स्वामीसे द्रोह किया है, उस तुलसी-सरीखे नीच सेवकको भी अपना लिया ( इससे अधिक अकारण हित करना और क्या होगा ?) ॥३॥ [२३१] और मोहि को है, काहि कहिहाँ ? रंक-राज ज्यों मनको मनोरथ, केहि सुनाइ सुख लहिही ॥१॥ जम-जातना, जोनि-संकट सब सहे दुसह अरु सहिहाँ । मोको अगम, सुगम तुमको प्रभु, तउ फल चारिनचहिहीं ॥२॥ खेलिवेको खग-मृग, तरु-कंकर कैरावरो राम ही रहिहीं। यहि नाते नरकहुँ सचु, या विनु परमपदहुँ दुख दहिहीं ॥३॥ इतनी जिय लालसा दासके, कहत पानही गहिहीं। दीजे वचन कि हृदय आनिये 'तुलसीको पन निर्बहिहाँ ॥ ४॥ ___भावार्थ-हे नाथ ! मेरे दूसरा कौन है, मैं ( अपने मनकी बात तुम्हें छोड़कर ) और किससे कहूँगा ? मेरे मनकी कामना रंकके राजा होने-जैसी है, (हूँ तो मैं निपट साधनहीन, पर चाहता हूँ मोक्षसे भी परेका परमात्म-प्रेमसुख । इस स्थितिमें तुम-सरीखे दयालको छोड़कर अपना ) वह मनोरथ किसे सुनाकर सुख प्राप्त करूँ । (दूसरा कौन मेरी बात सुनकर पूरी करेगा?) ॥१॥ यम-यातना