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विनय-पत्रिका
भावार्थ-सुन्दर ( मनुष्य- ) जीवन व्यर्थ ही बीत गया। तनिक
भी परमार्थ पल्ले नहीं पडा । दिनोंदिन अनीति बढ़ती ही गयी ॥१॥
लड़कपन तो खेलते-खाते बीत गया, जवानीको स्त्रियोंने जीत लिया
और बुढ़ापा रोग, ( स्त्री-पुत्रादिके ) वियोग, शोक तया परिश्रमसे
परिपूर्ण होनेके कारण वृया बीत गया ॥ २ ॥ राग, क्रोध, ईर्ष्या और
मोहके कारण संतोंकी सभा अच्छी नहीं लगी और (सत्सङ्गके अभावसे)
न तो श्रीरघुनाथ जीकी गुगावलीहीको कहा-सुना तया न श्रीरामजीके
चरणोंमे प्रेम ही हुआ ॥ ३ ॥ असहनीय ससारके भयको सुनकर
अब यह हृदय पश्चात्तापरूपी आगसे जला जा रहा है, अब इस
तुलसीके लिये अपने विरदकी रीतिको सोच-समझकर जो कुछ भी
प्रभुसे बन पडे सो करे ॥ ४ ॥
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ऐसेहि जनम-समूह सिराने ।
प्राननाथ रघुनाथ-से प्रभु तजि सेवत चरन विराने ॥ १ ॥
जे जड़ जीव कुटिल, कायर, खल, केवल कलिमल-साने ।
सूखत बदन प्रसंसत तिन्ह कहँ हरिते अधिक करि माने ॥ २ ॥
सुख हितकोटि उपाय निरंतर करत न पाय पिराने।
सदा मलीन पंथके जल ज्यों, कबहुँ न हृदय थिराने ॥ ३ ॥
यह दीनता दूर करिवेको अमित जतन उर आने।
तुलसी चित-चिंता न मिट विनु चिंतामनि पहिचाने ॥ ४ ॥
भावार्थ-इसी प्रकार अनेक जन्म (व्यर्थ) वीत गये । प्राणनाथ
रघुनाथजी-सरीखे खामीको छोड़कर दूसरोके चरणोंकी सेवा करता
रहा ॥१॥ जो मूर्ख जीव कुटिल, कायर और दुष्ट हैं तथा जो
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३६६
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