पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३६९

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विनय-पत्रिका ३७४ करती दिन-रात दूसरोंकी निन्दा कर क्यों व्यर्य ही आसक्ति बढा रही है। ॥१॥ मनुप्यके मुखरूपी सुन्दर और पवित्र मन्दिरमें वसकर क्यों उसे लजा रही है। ( विशयकी बातें छोडकर श्रीराम- नाम क्यों नहीं लेनी 2 ) चन्द्रमाके पास रहती हुई भी अमृतको छोड़- कर क्यों मृगतृष्णाके जलके लिये दौड रही है ? ( श्रीराम-नामरूपी अमृतका पान क्यों नहीं करती ? ) ॥२॥ ससारके भोगोंकी बातें कलियुगरूपी कुमुदिनीके ( विकसित करनेके ) लिये चाँदनीके सदृश है, उसे खूब कान लगाकर प्रेमपूर्वक सुना करती है । अरी जीभ ! उस विषय चर्चाको रोककर श्रीहरिके सुन्दर यशका गान कर, जिससे कानोंका कलक दूर हो (विषयोंकी वातें निरन्तर सुनते- सुनते कान कल की हो गये हैं, उनका यह कलक भगवत्कयाके श्रवण करनेसे ही दूर होगा)॥ ३ ॥ वुद्धिरूपी सुवर्ण और युक्ति- रूपी सुन्दर मणियोंका रच-रचकर एक हार तैयार कर ओर उस हारको शरणागतोंको सुख देनेवाले सूर्यकुलरूपी कमलके (प्रफुल्लित करनेवाले) सूर्य महाराज रामचन्द्रजीको पहिना । ( विशुद्ध बुद्धि और उत्तम युक्तियोंद्वारा निश्चय करके श्रीहरिका नाम-गुण कीर्तन कर ॥ ४॥ वाद-विवाद तथा स्वादको छोडकर श्रीहरिका भजन कर और उनकी रसीली लीलामें लौ लगा । यदि तू ऐसा करेगी तो तुलसीदास ससार सागरसे पार हो जायगा । (जन्म-मरणसे मुक्त हो जायगा) और तू भी तीनों लोको पवित्र कीर्तिको प्राप्त होगी ॥५॥ [२३८] आपनो हित रावरेसों जो पै सूझै। तो जनु तनुपर अछत सीस सुधि क्यों कबंध ज्यों जा