पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३७७ विनय-पत्रिका और इन्द्रके (आचरणाम) ऐसी कौन-सी बात थी जो न विगडी हो, किन्नु आपने उनकी बड़ी सहायता की और उनके हृदयका सन्ताप हर दिया॥५॥ (पिंगडा) वेश्या और कामदयने जगत्में ऐसा कौन-सा पाप है जो नहीं किया हो, किन्तु भगवान्ने उनका चरित्र पवित्र समझकर उन्हें अपने दृदय-मन्दिरमं स्थान दिया ॥६॥ भगवान् किस आचरणसे प्रसन्न होते हैं, यह समझ नहीं आना | तुलसीदास तो वसा खडा ग्वडा केवल श्रीरघुनायजीकी कृपाकी बाट देख रहा है ||७|| [२४०, सोइ सुकनी, सुचि साँचो जाहि राम ! तुम रीझे। गनिका, गीध, बधिक हरिपुर गये, लै कासी प्रयाग कब सीझे ॥ कबहुँ न डग्यो निगम-मगते पग, नृग जग जानि जिते दुख पाये। गजों कौन दिछिन जाके सुमिरत लै सुनाभ वाहन तजि धाये ।। सुर-मुनि-विप्र विहाय बड़े कुल, गोकुल-जनम-गोपगृह लीन्हो । घायों दियो विभव कुरुपतिको, भोजन जाइ विदुर-घर कीन्हो ॥ मानत भलहि भलो भगतनितें, कछुक रीति पारथहि जनाई। तुलसी सहज सनेह राम बस, और सबै जलकी चिकनाई ॥४॥ भावार्थ-हे रामजी ! जिसपर आप प्रसन्न हो गये, वही सच्चा पुण्यात्मा है और वही पवित्र है। वेश्या ( पिंगला ), गीध (जटायु) और बहेलिया ( वाल्मीकि ) जो परमधाम वैकुण्ठको चले गये, उन्होंने कव प्रयागमें जाकर तप किया और कंडोंकी आगमें जलकर मरे १ ॥ १ ॥ राजा नृग कभी वेदोक्त मार्गसे नहीं डिगा था, किन्तु संसार जानता है, उसने कितने दुःख भोगे ( गिरगिटकी योनि पाकर हजारों वर्ष कुऍमें पड़ा सड़ता रहा ! ) और वह हाथी कहाँ-