पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३७७

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विनय-पत्रिका ३८२ गाते हैं ॥१॥ जहाँ-जहाँ ( जिस-जिस योनिमें ) मैंने जन्म लिया, वहाँ-वहाँ मेरे बहुत-से पिता-माता, पुत्र-स्त्री और भाई-बन्धु हुए। परन्तु वे सभी खार्थ-साधनके लिये मुझसे प्रेम करते रहे, उनके मनमें छल-कपट रहा । इसीलिये किसीने भी मुझे श्रीहरिका भजन नहा सिखाया । (सभी ससारमें फंसे रहनेकी शिक्षा देते रहे, भगवद्भजन- का उपदेश नहीं दिया ) ॥२॥ शरीर धारणकर मैंने ( अपनी भलाई करनेके लिये ) देवता-मुनि, मनुष्य-राक्षस, सर्प-किन्नर आदि किसको सिर नहीं नवाया ? ( सभीके चरणोंमें सिर रख-रखकर खुशामदें की) किन्तु हे हरे ! पापके फलस्वरूप तीनों तापोंसे जलते फिरते हुए मुझको किसीने दयाकर शीतल नहीं किया । ( मोक्ष प्रदान कर ससारका ताप कोई नहीं मिटा सके) ॥३॥ मैंने सुखके लिये बहुत- से साधन किये, पर भगवचरणोंसे विमुख होनेके कारण सदा दुःख ही पाया । संसारमे विपत्तियोंका जाल बिछा हुआ देखकर अब मैं (समस्त साधनोंसे ) ऐसा थक गया हूँ, जैसे बिनापानीके नौका थक जाती है ॥ ४॥ हे नाथ! समझ लीजिये, मेरी यह दशा इमीलिये हुई है कि मैंने अपने सुख-निधान स्वामीको भुला दिया । हे हरे ! अब मेरे दोषोंका ख्याल छोड़कर इस शरणागत तुलसीदासपर दया कीजिये॥५॥ [२४४] याहि ते में हरि ग्यान गँवायो। परिहरिहृदय-कमल रघुनाथहि, वाहर फिरत विकल भयो धायोर ज्यो कुरंग निज अंग रुचिर मद अति मतिहीन मरम नहिं पायो। खोजत गिरि, तरु, लता, भूमि, विल परम सुगंध कहॉत आयो२ ज्यो सर विमल वारि परिपूरन, ऊपर कछु सिवार वन छायो।