पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३८५

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विनय-पत्रिका शोकरहित किया और उन्हें फिरसे अपने-अपने लोकोंका खामी बनाया, और हे रामजी ! आपके राज्यमें धर्म चारों चरणोंसे युक्त (धर्मराज्य ) हो गया ( सत्य, तप, दया और दान विकसित हो उठे) ॥ ३ ॥ हे कृपालो! आपने लीलापूर्वक ही अहल्या, निषाद, जटायु, बंदर, भील, भालु और राक्षसोंको तरण-तारण कर दिया; ( उन्हें तो तार ही दिया, परन्तु दूसरोंको तारनेकी शक्ति भी उनको दे दी। जिस किसीने उनका सग या अनुकरण किया, वह भी तर गया । ) हे गजराजके उद्धारक ! हे शीलके सागर ! इस तुलसीपर जो आपकी ओरसे कुछ ढील-सी दिखायी देती है, इससे वह मारे ग्लानिके गला चाहता है। अतएव कृपाकर इसका भी शीघ्र ही उद्धार कीजिये॥४॥ [२४९] भली भाँति पहिचाने जाने साहिव जहाँ लौं जग, जूड़े होत थोरे, थोरे ही गरम । प्रीति न प्रवीन, नीतिहीन, रीतिके मलीन, मायाधीन सब किये कालहू करम ॥१॥ दानव-दनुज बड़े महासूढ़ मूड़ चढ़े, जीते लोकनाथ नाथ ! वलनि भरम । रीझि-रीझि दिये वर, खीशि-खीझि घाले घर, आपने निवाजेकी न काहको सरम ॥२॥ सेवा-सावधान तू सुजान समरथ साँचो, सदगुन-धाम राम ! पावन परम । सुरुख, सुमुख, एकरस, एकरूप, तोहि विदित विसेषि घटघटके भरम ॥३॥